श्रमिक बेचारा

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🔲 मंजुला पांडेय

ऊँचे महलों में बैठे
ये जुमलेकारों की बातें
बैठे ऊँची गद्दी पर
आलिम-हाकिमों की बातें
बनो ! आत्मनिर्भर !
न रहो पराश्रित

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सुनने में ये जुमले
कितने अच्छे हैं लगते
धरातल की जमीं पर
कितने फीके हैं लगते
कर्म करो जाग्रित
सुप्त आत्मा को इतना
बनो!आत्मनिर्भर
करो उद्धार अपना

उत्कर्ष की राह
सबको लगती है अच्छी
दौर -ए-मुफलिसी लाचारी
किसको लगती है अच्छी?
नग्न कदम,रिक्त हस्त
दो कदम भी दुर्लभ
चलना है लगता

वक्त की मार के
क्षणों में मन की
पीड़ा को
बता दो
कोई दबाए कैसे?
बिगड़े हालातों में
गिर कर खुद को
फिर उठाए कैसे?

झूठा ढाढस दिलों को
दे कर
बनो!आत्मनिर्भर!
इन उपदेशों का थाल
मन में सजाए कैसे?

न तन पर कपड़ा
न रोटी पेट पर
न सर पर छत का
कोई ठिकाना
सम्भव होगा कैसे?
मुद्दतों से छूटे
वतन-ए-बसेरे में जाना
बनो!आत्मनिर्भर
नहीं है सहज
खुद को खुद से समझाना

शदियों से ये जुमले
हम सुनते रहे हैं
बनो!आत्मनिर्भर!
पराश्रित नहीं
सुना हमने जिनसे
झेले उनके ही हैं
साजिशों के झमेले

सियासतों के झगड़े
झूठी राहतों के किस्से
लम्बी राहों पर भटकना
मन को सिकोड़े
दो जून रोटी को तड़पना
झूठे वादों में फंसकर
बनो!आत्मनिर्भर!
झूठे जुमलों का
सब्ज बाग अपनों को
दिखाएं ये कैसे?

न सफर का पता है
न मंजिल का है ठिकाना
चल रहा है जो पैदल
बस अपने ही बल पर
पत्थरों पर चोट करता
गुरबत की आग है वो झेलता
बनो!आत्मनिर्भर का
राग है जो झेलता
नाम है वो बस एक
कमजोर वर्ग का
श्रमिक बेचारा।।

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प्रतिशोध के रंग

कृत्य करो की ऐसे
धरा में रहे सदा हरियाली
त्रस्त होकर तुम -सी
बने न कभी रुदाली

उत्कर्ष मद में होकर चूर
नर ने की नग्न तांडव की भूल
मौन हो सृजन खड़ा उदास
पलटवार की सोच रहा था

घोर तिमिर से घिर कर
प्रतिउत्तर के मौके खोज रहा था
घिर आए जब संकट के बादल
रूदन कर रही थी धरती सारी
अदृश्य सूक्ष्म शक्ति का लेकर शस्त्र
धरती स्व अस्तित्व हित में हुई सजग
स्वपुर्नस्थापन का लेकर व्रत
प्रकृति नर संहार को हुई उद्दिग्न

भर हुंकार विजयघोष की
व्यंग्यकार-सी हुई धरती
भयाक्रांत नहीं!मौन हूं मै
धैर्यशीलता मुझमें बसती
होकर त्रासित तुझसे मैंने भी
अब है करवट बदली

साक्षी है इतिहास जगत में
अनाचार से ग्रसित त्रस्त मन
जब विकराल हो जाता है
प्रतिशोध में प्रलय ही लाता है

गगन में पंक्षी उड़ना भूल गए थे
कर्णप्रीय करलव की ध्वनियाँ
सुनने को मानो तरस गए थे
नील-वर्ण बिन अम्बर पर
कविवर काव्य सृजन के
कशीदे गढ़ना ही भूल गए थे
गुजर गई थी कई सदियां शहरों में
बिन देखे गगन में
श्वेत-कपास-से बादल के
बनते-बिखरते चित्रों को

अब देखो प्रकृति ने है
कैसी ये करवट बदली
खूब खेल रही खेल निराले
खग-मृग जो कानन में छिपते
निकल आए शहरों में
उनके हैं अब तेवर बदले
स्वच्छ हो रहा पर्यावरण
संग अब यमुना का भी पानी
फूलों ने भी है अब रंगत बदल
खुद का चेहरा किया नूरानी

नदियां,झरने,जल सरोवर
मूल रंग वापिस होकर
अब हो रहे हैं स्वच्छ

स्मरण,चिंतन कर लो इतना खाली
प्रकृति प्रतिशोध की अदा निराली
मानव ह्रदय जितना हुआ भ्रष्ट
प्रकृति ह्रदय उतना हुआ तटस्थ
अर्जित कर प्रतिफल में मानव ने ली महामारी
प्रकृति ने हो मुखरित पाई छटा निराली।

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इंसान

स्वार्थ के भावों से आज लिप्त।
#भाव हीन सा क्यूं हो रहा इंसान।।

स्वभाव से मीठा जो नर है दिखता।
कृत्यों से भ्रष्ट नजर आ रहा इंसान।।

बदलाव है ये समय का कौन सा ।
जो अपनों से अलग हो रहा इंसान।।

सब कुछ पा लेने की होड़ में लगा।
फरेब से पहचान अपनी खो रहा इंसान।।

वो कौन सी है दुनिया जिस ओर जा रहे हम
स्व को ब्रह्म माने बेलगाम सा हो रहा इंसान।

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जिंदगी

कभी खुशी कभी गम् के खेल खेलती है जिंदगी।
कभी मुठ्ठी में बंद रेत-सी फिसलती है जिंदगी।।

समय की रेत पर लिखे हर्फों- सी है जिंदगी।
जीवन संघर्षों से जूझती धूप-छांव -सी है जिंदगी।।

बिखर कर टूटे तो उठें फिर से करें कर्म।
किए गए अमालों का ही तो अंजाम है जिंदगी।।

जिंदगी की उलझनों को सुलझाना आसां नहीं है।
सांसें हैं जब तलक फलसफा -सी होती है जिंदगी।।

न रखो दिलों में कोई दीवार न तकरार कोई।
पलक झपकते सरकते पलों की छोटी -सी है जिंदगी।।

शौक से जिओ उन पलों को मिल जाएं कभी।
वरना कमबख्त नाकाबिले भरोसे -सी है जिंदगी।।

कुछ अनसुलझे सवालों का जबाब ढूंढती -सी लगती है जिंदगी।
मंजुल रंगमंच में निभाते अब किरदार -सी लगती है जिंदगी।।

 

🔲 मंजुला पांडेय

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