ज़िन्दगी अब- 19 : अविश्वास : आशीष दशोत्तर
अविश्वास
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🔲 आशीष दशोत्तर
वे दोनों यानी पति-पत्नी पिछले तीन माह से घर से कहीं बाहर नहीं निकले। घर में बैठे -बैठे बोरियत होने लगी तो बड़ी हिम्मत कर उन्होंने सोचा कि चलो अपने एक मित्र के यहां मिलकर आते हैं। जिस मित्र के यहां जाना था, उसका परिवार भी छोटा ही था। पति -पत्नी और दो बच्चे। शाम को घर लौटने की जल्दी क्योंकि सात बजे पहले घर पहुंचने की हिदायत उस समय लागू थी। वे चार बजे के करीब अपने घर से निकले और अपने मित्र के यहां पहुंचे।
यहां उनके रिश्ते के बारे में बताना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि ये मौसमी मित्र नहीं हैं। यह दोनों मित्र काफी समय से परिवार सहित मिलते रहे। एक-दूसरे के घर आते जाते रहे, वार-त्यौहार के अलावा भी सामान्य रूप से महीने-दो महीने में एक दूसरे के यहां आना-जाना उनका होता रहा। इसलिए इनका अपनी पत्नी सहित उस मित्र के यहाँ आना न तो अप्रत्याशित था न अप्रासंगिक और न ही अचरज भरा। उस मित्र के घर पहुंच कर इन्होंने द्वार घंटी बजाई। मित्र ने घर के भीतर से पूछा, कौन है? उन्होंने बाहर से अपना उल्लेख किया और कहा कि दरवाज़ा खोलो, हम मिलने आए हैं। उस मित्र ने दरवाजा खोलने के बजाए दरवाज़े के पास ही बनी खिडक़ी अंदर से खोली।
अंदर से देखा उसे यकीन हो गया कि यह तो अपना मित्र ही है। पत्नी सहित आया है। भाभीजी को नमस्ते किया। अब भी उसने दरवाज़ा नहीं खोला और अंदर से ही पूछा, ऐसा कौन सा खास काम पड़ गया जो इस वक्त आना हुआ। मित्र ने कहा इधर से गुज़र रहे थे, काफी दिन मिले हो गए थे। सोचा मिलते चलें। कुछ देर तुम्हारे यहां गपशप हो जाएगी।
उस मित्र ने अंदर से ही कहा यह समय गपशप करने का है क्या ? चलो, आए हो तो वहीं लॉन में बैठो। लॉन में दो कुर्सियां लगी थी, जिसकी तरफ इशारा करते हुए उसने कहा। पति-पत्नी लॉन में कुर्सी पर बैठ गए। उन्हें उम्मीद थी कि वह पत्नी सहित घर से बाहर आएगा और फिर यहीं बैठकर बातें होंगी। अंदर मित्र अपनी कुर्सी पर बैठ गया। वहीं से बात करने लगा। कैसे हाल हैं ? बाहर बैठे पति- पत्नी को बुरा लगा। उन्होंने कहा बाहर तो आओ।
वह अंदर से ही बोला, माफ करना यार, यह समय बाहर आने का नहीं है। हम इसी तरह बात कर सकते हैं। तुम बाहर बैठो। हम अंदर से बात कर रहे हैं। हमारी मुलाकात अभी संक्रमण काल में इसी तरह हो सकती है। मैं किसी तरह का ख़तरा लेना नहीं चाहता हूं, न तुम्हें देना चाहता हूं। इसलिए अच्छा है कि हम इसी तरह बात करें। यह सुन बाहर बैठे मित्र और उसके पत्नी को बहुत बुरा लगा। उन्होंने वक्त की नज़ाकत को समझते हुए उस मित्र से यह कहते हुए विदा ले लिया कि तुम ठीक कहते हो। हम इस संक्रमण काल की मुक्ति के बाद मिलेंगे।
यह प्रसंग जब उन्होंने मुझे सुनाया तो उनकी आंखें नम थीं। वे कह रहे थे , देखो वक्त ने हमें किस हाल में खड़ा कर दिया है। एक मित्र जो हमेशा मिलता रहा, वह इस दौर में हमें घर में आने से मना कर रहा है। इसमें उसका कोई दोष नहीं। इस दौर ने हमारे बीच के रिश्तों को बदल दिया है। हमारे बीच अविश्वास की एक ऐसी दीवार खड़ी कर दी है जो हमें दूर कर रही है। इसे फिजिकल डिस्टेंसिंग या सोशल डिस्टेंसिंग का नाम दें या चाहे जो कहें मगर हक़ीक़त में हमारी ‘ रिलेशनशिप मे डिस्टेंस’ आ गया है। अविश्वास ने हमारे दर्मियान पैर पसार लिए हैं। उनकी यह बातें सुनकर मुझे लगा कि वाकई इस संक्रमण काल ने हमसे बहुत कुछ ऐसा भी छीन लिया है, जिसकी न कभी चर्चा होगी और न ही कभी उसकी भरपाई जा सकेगी।
🔲 आशीष दशोत्तर