ज़िन्दगी अब- 20 : भला कचरा : आशीष दशोत्तर
भला कचरा
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🔲 आशीष दशोत्तर
सुबह के पौने छह बजे होंगे। प्रातःकालीन भ्रमण जारी था। कुत्ते जोर-जोर से चिल्ला रहे थे। लगातार कुत्तों का शोर सुन उधर नज़र डाली। देखा तो सड़क से कचरा बीनने वाली महिला अपने बच्चों के साथ गुज़र रही थी। एक महिला जिसकी गोद में तीन साल का बच्चा। दो बच्चे और जिनकी उम्र तकरीबन दस से बारह वर्ष। तीनों के कांधे पर एक थैला और दूसरे हाथ में लकड़ी। हाथ की लकड़ी दोहरा काम कर रही थी। कुत्तों को भगाने का भी और कचरे के ढेर में से उनके काम का कचरा छांटने का भी।
बहरहाल, उन्होंने कुत्तों को अपनी लकड़ी से भगाया और आगे बढ़ गए। महिला की गोद में जो बच्चा था वह रोने लगा। महिला ने पास ही में मौजूद एक सार्वजनिक हैंडपंप पर बच्चे को पानी पिलाया।
उस महिला और उन बच्चों को देख मैंने पूछा, इन सब बच्चों को लेकर तुम रोज निकलती हो। कहने लगी, काम तो रोज करना पड़ता है। मैंने पूछा, कैसा काम? उसने कहा, यही तो हमारा काम है।
हम कचरा ही बीनते हैं। रोज सुबह इतनी जल्दी निकलना पड़ता है। अगर जल्दी नहीं निकलें तो पूरा थैला भरकर कचरा मिलता नहीं है। कोई दूसरा कचरा बीनने वाला आ जाए तो कुछ नहीं लगता। कचरा नहीं मिलेगा तो दिन भर क्या करेंगे।
मैंने कहा, यह दो बच्चे तो स्कूल जाने लायक है ।स्कूल क्यों नहीं भेजती ? वो कहने लगी, स्कूल में नाम तो लिखा है लेकिन यह स्कूल चले जाएंगे तो कमाएगा कौन? वैसे भी अभी स्कूल बंद हैं। हम तीनों की कमाई से ही घर चल रहा है।
महिला के हाथ में छोटा बच्चा बहुत कमजोर लग रहा था। मैंने पूछा इसकी ऐसी हालत कैसी हो रही है। इसे खाने को नहीं देती हो। वो कहने लगी, खाने के ही तो लाले हैं बाबूजी। न हम ठीक से खा पा रहे हैं न ये बच्चे । कोई बाहर से कमज़ोर दिख रहा है तो कोई अंदर से। रोज कचरा बीन कर जो कमाते हैं उसी से घर का गुजारा होता है। ऐसे में आप ही बताओ घर कैसे चलाएं? कचरा बीनने में वैसे ही अब कितने ख़तरे हैं। लोग तो अच्छी -भली चीजों को हाथ नहीं लगा रहे हैं ,और हम फेंके हुए कचरे में भी अपना जीवन ढूंढ रहे हैं। मैंने कहा कि तुम्हारे घर में तो राशन भरा होगा ।अभी ग़रीब लोगों को बहुत खाद्य सामग्री बांटी गई, तुम्हें भी मिली होगी। फिर चिंता काहे की। वह बोली वह तो पंद्रह दिन में खत्म हो गई। उसके बाद किसी ने खैर ख़बर नहीं ली। इधर-उधर से मांग कर गुज़ारा हो रहा है । यह तो कचरे का भला हो जिसने हमें ज़िंदा रखा है। अगर इसे बीनकर न बेचें तो हमारा पेट ही नहीं पले। राशन मिल भी जाए तो भी हाथ में पैसा ज़रूरी है।
इस महिला की बातें सुन लगा कि महिला खुद का नहीं बल्कि आज के दौर में हर व्यक्ति का हाल बयां कर रही है। इस दौर में हर कोई अपना पेट पालने के लिए अव्यवस्थित हो चुकी ज़िन्दगी में से अपने ज़रूरत की किसी न किसी चीज को बीन ही रहा है। योग्य व्यक्ति भी इस बुरे दौर में सभी तरह के समझौते करने को तैयार है। नौकरी खोने के डर से कई लोग आधी तनख्वाह में भी पूरा काम करने को विवश हैं। नौकरी जाने की स्थिति में अनेक युवा या तो बेरोजगार घूम रहे हैं या अपनी योग्यता के विपरीत दूसरा काम कर अपना जीवन यापन कर रहे हैं। संक्रमण काल ने लोगों की जिंदगी के अर्थ को ही बदल दिया है। जिन्हें दो वक्त भरपेट भोजन मिल रहा है वे आज के दौर में खुद को खुशनसीब समझ रहे हैं, मगर ऐसे लोग जो इस दौर में खुद को कायम रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं ,वे कहीं न कहीं विषम परिस्थितियों में खुद को घिरा पा रहे हैं।
🔲 आशीष दशोत्तर