मातृ दिवस पर विशेष : मां तुम कहां हो, मां नहीं जानती, कविता में बची रहेगी मां
⚫ डॉ. चंचला दवे
मां तुम कहां हो
मां तुम कहां हो?
दीवार पर
केवल एक तस्वीर में
जैसे बार बार कहती
उठो!सूरज चढ़ आया
सिर पर
फैली धूप आंगन तक
पड़ी रहोगी,मलूका के
दास की तरह
मां तुम कहां हो
होती तो देखती आज
कितने पायदान ऊपर
चढ़े हम
शब्दों के अनंत मोती बनकर
तुम मुझ तक आती
और डूब जाती
आंखों में
आज खूब बदल चुकि है
दुनियां,और नहीं बदली
केवल तुम
बदलती दुनियां के साथ
नहीं बनाया पीजा,बर्गर, नूडल्स
हवा भी बदली ए सी में
पानी बदला
बंद बोतलों में
बच्चे बदले घर बदला
आंगन बदला
रोटी कपड़ा सब कुछ
बदला
नहीं बदली तो तुम
तुम्हें देख सकती हूं
कर सकती हूं बातें
हर पल सहेजती
दुलारती
देती जीने का मूल मंत्र
मां तुम हमेशा रहोगी
जीवित
मेरी देह में मेरे मन में
मेरे घर आंगन की
बगिया में
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माँ नहीं जानती
माँ नहीं जानती
उस पर
लिख सकता हैं
कोई कविता
नहीं है हिसाब
उसके पास
किये हुए कामों का
किस कदर
आकाश में उड़ान
की
ताकत भरती रही
पैरों में
सोकर भी जागती
रही सोकर
आंखों में
आज रु-ब-रू
खडी है
देख सकती हूं
सब कुछ
मरी हुई
पूरी जिंदगी में
किस तरह बही है
नदी बनकर
⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫⚫
कविता में बची रहेगी मां
खुद को देखती हूं आईने में
मां याद आती है
अभी अभी आएगी
अपने पोपले मुंह से
डांटेगी मुझे
मेरे उलझे बालों को
सुलझाएगी
असंख्य झुर्रियों के बीच
मुस्कुरायेगी मां
पिता मरे तब
हमारी भूख बनी
प्यास बनी
हमें पालने में
पालना बनी
अभी अभी आकर
सुलायेगी मां
दीवार का झरता
अंतिम पलस्तर है मां
एक दिन आयेगा
जब नहीं होगी मां
तब हमसे दूर
केवल कविता में
बची रहेगी मां
⚫ डॉ चंचला दवे