ज़िन्दगी अब -5 : क्या बजे बाजे ? : आशीष दशोत्तर
ज़िन्दगी अब -5 : क्या बजे बाजे ?
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🔲 आशीष दशोत्तर
वटवृक्ष की पूजा के लिए एकत्रित महिलाओं के बीच वही एक पुरुष था। पूजन स्थल से कुछ दूरी पर बैठा वह ढोल बजा रहा था। अमूमन अपने शहर में बजने वाले ढोल इतने बुलंद हुआ करते हैं कि एक मुहल्ले बाद वाले लोग भी उसकी आवाज़ से परेशान हो जाया करते हैं। मगर यहाँ बैठा यह ढोली इतनी कम आवाज़ में ढोल बजा रहा था कि उससे कुछ दूरी पर खड़े मुझ तक भी आवाज़ नहीं आ रही थी। महिलाओं का पूजन खत्म हुआ तब उससे पूछा, इतना धीरे कब से बजाने लगे? रुआंसा होकर बोला, तीन महीने बाद आज पहली बार ढोल बजा रहा हूँ, वह भी छुपते छुपाते। दो पैसे तो मिले। वरना जीवन तो नरक हो गया है।
यह ढोली एक बेन्ड बाजे में काम करता है । अपने छोटे-से शहर की ही बात की जाए तो यहां बेंड बाजे वाले तकरीबन 15 से 20 हैं। ये बाजे वाले विभिन्न उत्सवों में हमारे बीच मौजूद रहते हैं और हमारी खुशी को दोगुना करते हैं। गम में भी यह हमारे साथ खड़े होते हैं , लेकिन मुश्किल के इन पलों में इनके साथ शायद कोई नहीं खड़ा है। बैंड बाजे वालों के वर्तमान हालात पर चर्चा करने से पहले इनके मैनेजमेंट और इस व्यवसाय से जुड़ी कुछ बातें जो बेहद ज़रूरी है, उस पर विचार किया जाए। एक बेंड बाजे वाले के पास तकरीबन 25 से 30 कलाकार होते हैं । लगभग इतने ही मजदूर। कलाकार विभिन्न वाद्य यंत्र बजाते हैं, साउंड सिस्टम संभालते हैं। मजदूर वे जो बैंड की गाड़ी को धक्का लगाते हैं, सामान उठाकर गाड़ी से बाहर करते हैं, अंदर रखते हैं। गाड़ी को दिखाकर कई किलोमीटर दूर तक ले जाते हैं ।अब कई बैंड वालों ने अपने बैंड के गाड़ियों को जीप की शक्ल दे दी है इसलिए अब एक ड्राइवर भी इस टीम में शामिल हुआ करता है ।
पचास लोगों की टीम को लेकर चलना और न सिर्फ लेकर चलना बल्कि उन्हें पूरे साल भर तक संभाल कर रखना कितना मुश्किल है, इसका अंदाजा हम नहीं लगा सकते।
बेंड बाजा का व्यवसाय सीजनल है, यानी जब शादी-ब्याह होते हैं, तभी यह धंधा चल पाता है। पूरे वर्ष में शुभ मुहूर्त की बात करें तो 4 से 6 महीने का समय ही होता है जबकि बैंड बाजे का व्यवसाय चल पाता है। यानी 6 माह के काम पर 12 माह तक 50 लोगों की टीम को संभालना। उन्हें मेहनताना देना। उनकी रोजी-रोटी का प्रबंध करना। यह सब एक बेंड मालिक को करना होता है। इन कलाकारों में भी कई ऐसे होते हैं जो अपनी शर्तों पर बेंड में काम करते हैं। मतलब वे किसी भी बेंड टीम में शामिल होने से पहले एक निश्चित धनराशि अग्रिम के तौर पर लेते हैं ,जो पचास हजार से एक लाख या इससे अधिक की भी हुआ करती है। काम के हिसाब से मेहनताना देना, वह अलग। पूरे वर्ष भर का रखरखाव जो निश्चित रूप से लाखों में हुआ करता है। उसकी व्यवस्था भी करना और इन सब के बाद अपने परिवार का भी पेट पालना। इस पूरी व्यवस्था को एक बेंड मालिक संभालता है और इसी पर उसका पूरा व्यवसाय निर्भर करता है।
अब इस संक्रमण काल पर विचार करें तो पिछले लगभग तीन माह से बेंड बाजा व्यवसाय की गतिविधियां बंद पड़ी हुई है। यह समय शुभ कार्यों के लिए उचित था और हर बैंड वाले के पास 40 से 50 बुकिंग थी। वे सभी काम निरस्त हो गए। जो कार्य निरस्त हुए हैं वे आगे होंगे या नहीं किसी को नहीं पता। अगर होंगे तो भी उसमें बेंड बाजे वालों की भूमिका रहेगी या नहीं यह भी कोई नहीं जानता। आने वाले एक और सीजन में इस व्यवसाय को ठप ही रहना है । जिन कारीगरों को, कलाकारों को बेंड मालिक ने अनुबंधित कर रखा है, या जो मजदूर बैंड के साथ काम कर रहे हैं, वे इस दौरान बेंड मालिक से भरण पोषण की राशि मांगते रहे जो बेंड मालिक को देना भी पड़ी। आने वाले छह महीने तक भी कुछ-कुछ ऐसा ही चलते रहना है।
इन परिस्थितियों में किस तरह बेंड बाजा व्यवसाय अपने व्यवसाय को चला पाएंगे। यह सोचने वाली बात है। जिस संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए हमने इतने दिनों का लाकडाऊन झेला। अब लगता है उसके सुखद परिणाम नहीं मिल रहे हैं । जिस गति से संक्रमण फैल रहा है और हर शहर के विभिन्न हिस्सों और विभिन्न तबकों के लोग कोरोना के शिकार हो रहे हैं इसे देखते हुए लगता है कि आगामी दिनों में यह स्थिति और भी भयावह हो सकती है ।इस बीच अपने व्यापार -व्यवसाय को चौपट होने की बात कहकर बडे उद्योगपति, बड़े व्यवसायी, बड़े दुकानदार अपने-अपने तरह से मुआवजे, छूट, रियायत के लिए ज्ञापन दे रहे हैं। सहायता की मांग कर रहे हैं। लेकिन क्या किसी ने बेन्ड व्यवसाय जैसे छोटे व्यवसाय की चिंता की । ऐसे व्यवसायी न तो आह कर पा रहे हैं और न हीं खुलकर सांस ले पा रहे हैं। उनका आज तो संकटग्रस्त है ही, आने वाला कल भी संकट से मुक्त नहीं दिख रहा है। एक छोटे से शहर के बाजे वाले को देख उभरी यह पीड़ा छोटी समस्या नहीं है , देशभर में बेंड बाजा व्यवसाय से लाखों लोग जुड़े हुए हैं । इस लाकडाऊन के कारण उनकी क्या स्थिति हुई । वे किस बदहाली के दौर में है, यह देखने वाला कोई नहीं है। क्या राज्य सरकारों का यह दायित्व नहीं है कि वह इस तरह के व्यवसाय वालों को चिन्हित कर उनके लिए कोई निश्चित योजना बनाएं। कुछ ऐसे उपाय करें जिससे या तो इनका व्यवसाय गति पकड़ सके या फिर उनके परिवारों का पालन-पोषण हो सके। यह एक छोटे से व्यवसाय की छोटी सी चिंता है। बड़े-बड़े उद्योगों, रसूखदारों की बातों को हर जगह सुना जाता है समझा जाता है, और स्वीकारा जाता है लेकिन ऐसे छोटे व्यवसाय वाले जो अपने साथ पचास लोगों का परिवार भी पालते हैं उनके बारे में सुनने वाला आज कोई नहीं।
🔲 आशीष दशोत्तर