साहित्य सरोकार : पुनर्पाठ ख़ामोशी के दौर में मुखर समय के युवा स्वरों की बात

⚫ आशीष दशोत्तर
सृजन की दिशा तय करना उस वक़्त बहुत ज़रूरी होता है जब युवा एक ऐसे मुकाम पर खड़ा हो कि उसे समझ नहीं आए कि किधर जाना है , किधर नहीं । क्या करना है , क्या नहीं । किसे अपनाना है किसे नहीं । मुक्तिबोध यदि कहते हैं कि , ' तय करो तुम किधर हो ।' तो युवा को अपने नाज़ुक दौर में यही सब कुछ तय करना होता है ।
इसकी सीख कुछ हद तक विद्यालय और इसके बाद महाविद्यालय स्तर पर मिल सकती है । रतलाम का शासकीय कला एवं विज्ञान महाविद्यालय इस मायने में बहुत समृद्ध रहा कि यहां समय-समय पर बड़े साहित्यिक आयोजन होते रहे। बड़े रचनाकार यहां पदस्थ रहे। रचनात्मक गतिविधियां संचालित होती रहीं । देश के बड़े रचनाकार यहां आते रहे। इस कारण यहां से निकली युवा प्रतिभाएं आज भी देश के विभिन्न स्तरों पर अपनी रचनात्मक पहचान बनाए हुए हैं । ऐसी ही रचनात्मक प्रतिभाओं की रचनात्मकता से वाबसु होते-होते एक बहुत छोटी सी पुस्तक के पुनर्पाठ का अवसर मिला । इस पुस्तक का पाठ आज के दौर में बहुत ज़रूरी है क्योंकि आज विद्यालय और महाविद्यालय रचनात्मक वातावरण से बहुत दूर हो चुके हैं।
65 पृष्ठों की बहुत छोटी पुस्तक 'आरम्भ' से होकर गुज़रना उस रचनात्मक दौर को याद करना है,जब विचारशीलता अपने चरम पर थी। युवाओं को प्रोत्साहन देने के लिए शिक्षक समुदाय लालायित रहता था । कविता की मुखरता को सहन करने वाले नेतृत्वकर्ता थे और उनके शब्दों को समझने और परखने वाले समाज के गुणिजन। ' विक्रम विश्वविद्यालय की युवा कविता ' पर केन्द्रित इस पुस्तक को उस समय के महत्वपूर्ण कवि डॉ. प्रभात कुमार भट्टाचार्य के संपादन और विशेष संपादक डॉ. प्रमोद त्रिवेदी के श्रम से विद्यार्थी- कल्याण संकाय अध्यक्ष द्वारा प्रकाशित किया गया था। तीन रुपए मूल्य की यह पुस्तक का पहला संस्करण 1977 में आया था।
यह सवाल स्वाभाविक ही जेहन में आ सकता है कि 48 वर्षों के बाद फिर से इस पुस्तक को याद क्यों किया जा रहा है? इस पुस्तक का पुनर्पाठ सिर्फ इसलिए नहीं कि उस दौर की सृजनशीलता को सामने लाया जा सके , बल्कि इसलिए भी ज़रूरी है कि आज के शैक्षणिक परिदृश्य से इन सब चीज़ों को शून्य कर दिया गया है । विद्यार्थियों की मुखरता को मौन में तब्दील कर दिया गया है । उनके विचारों को दायरे में क़ैद किया जा रहा है। उनके हाथों से कविता लिखने वाली क़लम छीन कर रंग-बिरंगे परचम थमाए जा रहे हैं । उनकी मानसिकता को विक्षिप्त बनाया जा रहा है । ऐसे दौर में इस क़िताब का ही नहीं ऐसी हर क़िताब का ज़िक्र बहुत ज़रूरी हो जाता है । विश्वविद्यालय स्तर पर छपी इन किताबों में विद्यार्थियों की मुखरता परिलक्षित होती है । ऐसी कविताएं यदि आज के समय में कोई विद्यार्थी लिख दे तो शायद अब तो उसका विश्वविद्यालय से निष्कासन कर दिया जाए । उस दौर के रचनात्मक समर्पण और युवाओं के उत्साह को आगे बढ़ने का हौसला देखिए कि ऐसे प्रकाशनों के ज़रिए एक पूरी रचनात्मक पीढ़ी को तैयार किया गया।
पुस्तक के ब्लर्ब पर कुलपति डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' का वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण है। वे लिखते हैं , " विक्रम विश्वविद्यालय के विद्यार्थी कल्याण विभाग द्वारा एक अभिनव प्रकाशन योजना उपक्रम के नाम से प्रारंभ की जा रही है। विक्रम परिक्षेत्र की सृजनशील प्रतिभाओं को बिना किसी भेदभाव अथवा पूर्वग्रह के प्रस्तुत करने का यह प्रयत्न स्वयं में ही श्लाघनीय है । इसमें काव्य, नाटक , कहानी , निबंध सभी विधाओं का समावेश होगा । यह प्रयोग नवोन्मेषी प्रतिभाओं को सामने लाने के लिए अतिरिक्त चिंतन-मनन और रचनाशीलता के नए आयामों को भी उद्घाटित कर सकेगा । किसी भी विश्वविद्यालय की उद्बुद्धता , प्रहवणशीलताऔर उद्दामता को गतिशील और संयमित करने के लिए कालांतर में ऐसे प्रयोगों का ऐतिहासिक महत्व भी हो सकता है । प्रायः हम विश्व की विराट समस्याओं से जूझने का दम भरते हैं पर अपने ही पारिपार्श्व से अछूते रह जाते हैं ।"
अपने आसपास देखना, अपनी प्रतिभाओं को पहचाना , उनमें छुपी रचनाशीलता को आगे बढ़ाना और उन्हें एक बड़ा कैनवस देना , यह उसे दौर की ख़ासियत रही , यही कारण है कि इस पुस्तक में समाहित सभी कवि अपनी उम्र के तेवर को ज़िंदा रखते हुए अपनी बात कह पाए हैं।
इस पुस्तक में 16 कवियों की 33 कविताएं सम्मिलित हैं। इनमें पंकज पाठक , संजीव क्षितिज , संदीप चौधरी , अमिताभ पांडे , हिमांशु रथ , राजीव पाहवा, प्रभा मुजुमदार , हेमंत तारे , अशोक पवैया , अरुण कोचर , पंकज शर्मा , वीरेंद्र सिंह , मुस्तनसिर भाई 'शाकिर', प्रदीप मोघे, प्रकाश रातडिया और मृदुला माथुर शामिल हैं। इनमें से कई नाम को आज भी हिंदी कविता में महत्वपूर्ण मुकाम हासिल है।
विशेष संपादक डॉ. प्रमोद त्रिवेदी ने पुस्तक के प्रारंभ में 'बेहतर कविता के लिए' शीर्षक से अपने वक्तव्य में बहुत महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए हैं । इसी में वे कहते हैं , " इन एकदम नए रचनाकारों के सामने गंभीर और शायद ज़्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा यह भी होना चाहिए जो उन्हें लगातार परेशान करता रहे कि वे भाषा और शिल्प के स्तर पर अपनी अलग पहचान किस तरह बनाते हैं । हर युवा रचनाकार के सामने दो रास्ते हैं , या तो भाषा का वह महज मुहावरे की तरह इस्तेमाल करें , चालू माल का उपयोग करना आसान होता है। अपने-अपने समय के अधिकांश रचनाकारों ने यही किया है । पर दूसरा रास्ता है , जब अभिव्यक्ति का गहरा संकट महसूस किया जाता है तब नई ज़मीन फाड़ी जाती है। नए स्रोत अन्वेषित किए जाते हैं । इसी प्रक्रिया में रचनाकार की विशिष्टता और उसकी रचनात्मकता संपन्नता प्रकट होती है । अपने से वरिष्ठ रचनाकारों से प्रेरणा लेना ग़लत नहीं है पर अपनी विशिष्टता खो देना अपने लिए और अपनी रचना के लिए स्वनिर्मित संकट पैदा करना है । ऐसी स्थिति में हम अपनी अलग पहचान के लिए कोई निशान नहीं छोड़ते। "
इस पुस्तक की कविताओं को पढ़कर यह लगता है कि अपनी युवावस्था में ये सारे रचनाकार उस समय की परिस्थितियों और उस दौर के साहित्यिक वातावरण से अवश्य प्रेरित हुए होंगे । इतनी सधी हुई कविता और अपने विचारों का इतना अविरल प्रवाह इस उम्र के युवाओं में बहुत कम देखने को मिलता है।
शासकीय महाविद्यालय रतलाम के युवा कवि और आज के वरिष्ठ वैज्ञानिक अमिताभ पांडे की तीन महत्वपूर्ण कविताएं इसमें सम्मिलित हैं।' पक्षधर' कविता में वे कहते हैं -
मेहनतकश कठोर हाथ या
ख़ून से सने ज़हरीले पंजे
आख़िर तुम्हें किस से प्यार है ।
सड़ती हुई शाखें या उगती हुई कोंपलें
आख़िर तुम्हें किस से प्यार है ।
सवेरे के सूरज या अंधेरी ठिठुरन
आखिर तुम्हें किस से प्यार है ।
संघर्षों का कोलाहल या कब्रिस्तान का सन्नाटा
आख़िर तुम्हें किस से प्यार है।
इतना साफ़ है - तुम इंसान हो
और तुम भूख के सताए हो
अब सारा क़िस्सा बिल्कुल साफ़ है
तुम्हें किस से प्यार है।
अपनी दिशा तय करना और उस दिशा में आगे बढ़ना यह इस उम्र की ख़ासियत होती है, लेकिन यह तभी हासिल होती है जब सही वातावरण मिले और हर परिस्थिति को समझने वाला परिवेश भी।
शासकीय महाविद्यालय रतलाम की कु. प्रभा मुजुमदार की दो महत्वपूर्ण कविताएं इसमें शामिल हैं । प्रभा मुजुमदार वर्तमान में बहुत सशक्त महिला कवयित्री के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए हैं । इस संग्रह में उनकी कविताओं के तेवर वैसे ही दिखाई पड़ते हैं, जैसे आज हैं । ' कायर ' कविता में वे कहती हैं -
समाज की अभिलाषा के नाम पर
अपनी ही कायरता को छुपा कर
कोटिजनों के पूज्य तो बन गए तुम हे राम !
लेकिन अनगिनत सीताओं का
युगों युगों से क्रंदन तुम्हारे शौर्य के आगे ,
पुरुषार्थ के आगे प्रश्न चिन्ह बना रहा ।
मर्यादा की बजाए
विद्रोह का प्रतीक बन सकते होते अगर तुम
एक निर्दोष सीता को ठुकराने की बजाए
सिंहासन ठुकरा सकते तो कितनी ही सीताएं
यों धरती में समा जाने को विवश न होती ।
भले ही तब , तुम्हारी मूर्तियों को मंदिरों में
पूजा न जाता लेकिन चिरकाल के लिए
अदम्य साहस की एक प्रेरणा बन जाते तुम।
इतनी बुलंदी से इस उम्र में बात कहना आज के दौर में बहुत मुश्किल है। ऐसी रचनाएं हमें उस समय के साहित्यिक वातावरण के बारे में सोचने पर विवश करती हैं । यह देखकर आज अफ़सोस भी होता है कि इतनी निडरता से लिखने का साहस देने वाली परिस्थितियां आज क्यों युवाओं को उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं ?
शासकीय महाविद्यालय रतलाम के हेमंत तारे की दो कविताएं भी व्यवस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं । वे अपनी कविता 'नियमित - प्रक्रिया' में कहते हैं -
एक बहुत बड़ा वृक्ष
जीवित इकाइयों का समूह
नई पत्तियों का जन्म
पुरानी पत्तियों का पीला पड़ना
अंत में निर्जीव होना , गिर पड़ना
धूल में समाना
उस समय
जबकि माचिस खाली हो चुकी होती है
कोई आज नहीं जला सकता
कई अश्वशक्तियों से चलते इस चक्र को
कोई रोक नहीं सकता
चालक को कोई चुनौती नहीं दे सकता।
ठीक इसी तरह की मुखरता संग्रह की हर रचना में देखने को मिलती है। शासकीय महाविद्यालय जावरा के युवा विद्यार्थी संजीव क्षितिज, जो इस समय पत्रकारिता में अहम मुकाम पर हैं , वे अपनी चार कविताओं के साथ अपनी बात मुखरता से कहते हैं । ' ज़रूरत एक अलाव की ' शीर्षक से कविता में वे कहते हैं -
बहुत मुश्किल होता है
मुट्ठी भर हाथों की दस्तकों से
व्यवस्था के बंद दरवाज़े का खुलना ।
जबकि भीतर दस्तकों की पहुंच में
कोई भी नहीं होता ,
दरवाज़े को ताक़त के साथ धकेल देना
ज़रूरी हो जाता है और ज़रूरी हो जाता है
एक भीड़ का बुलंद हौसला ।
इधर मेरे शहर की व्यवस्था के कच्चे मकान पर
पाला पड़ गया है
और भीड़ पर सन्नाटे की स्याह लकीर
व्यवस्था की ख़ामोशी के समानांतर खींची है।
लोग सेक लेना चाहते हैं
अपनी ठिठुरी हथेलियां
एक दूसरे की गर्म जेबों में ।
कोई भी नहीं है जो रख सके अपनी उंगलियां
जमाती हुई बर्फ पर
और व्यवस्था के बंद दरवाजे के ठीक सामने
जला सके सभी के लिए एक अलाव।
यह ज़रूरी नहीं कि महाविद्यालयीन जीवन में कविता के साथ जुड़े रहे ऐसे प्रत्येक युवा अपने जीवन में भी कविता से जुड़े ही हों , परंतु यह भी सच है की इस दौर में अगर रचनात्मकता से जुड़ाव होता है तो वह रचनात्मकता जीवन में कहीं न कहीं , किसी तरह सहायक सिद्ध होती है । अपने भीतर की आग को बचाए रखती है। पुस्तक की भूमिका में डॉ. प्रमोद त्रिवेदी ने भी इसी बात को रेखांकित किया है । वे कहते हैं, " मैं नहीं सोचता कि ये सभी कवि आगे भी अपनी रचनाओं के साथ होंगे । ज़िन्दगी के संघर्ष और सफ़र में कइयों की कविता पीछे छूट जाएगी , पर इनमें से कुछ ज़रूर होंगे जिनके लिए कविता का सृजन महज शौक और प्रतिष्ठा का कारण न बनकर उनकी आंतरिक ज़रूरत बनेगी।"
महाविद्यालय स्तर से आगे बढ़े इनमें से अधिकांश युवा रचनात्मक रूप से आज भी सक्रिय हैं , यह सुखद है । यहां इस बात को रेखांकित किया जाना बहुत ज़रूरी है कि जिस रचनात्मकता को पिछले दौर के युवाओं ने अपने स्कूल- कॉलेज के समय महसूस किया , वह रचनात्मकता अब पूरी तरह ग़ायब हो चुकी है । आज का दौर युवाओं को रचनात्मक से पूरी तरह अलग कर चुका है । न ऐसे नेतृत्वकर्ता हैं जो ऐसी प्रखर रचनात्मकता को सहन कर सकें । न ऐसे शिक्षक हैं जो युवाओं में छुपी प्रतिभाओं को बाहर ला सकें , न ही ऐसे युवा हैं जो अपने भीतर की आग को शब्दों में ढालने के लिए बेचैन हों। कुल मिलाकर हमारे बीच से ग़ायब होती रचनात्मकता को सहेजने के लिए बीते वक़्त की ऐसी पुस्तकों से होकर गुज़रना ज़रूरी है।
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