शख्सियत : भारत में लेखक सर्वाधिक शोषण के शिकार
भारत में लेखकों का जितना शोषण होता है, उतना किसी अन्य देश में नहीं। लेखकों को उनकी रचना का उचित मानदेय नहीं दिया जाता और न उन्हें कानूनी सुरक्षा मिलती है। वहीं उनके अधिकारों का घोर उल्लंघन होता है।’

⚫ डॉ. शकीला बानो का कहना
⚫ नरेंद्र गौड़
’भारत में लेखकों का जितना शोषण होता है, उतना किसी अन्य देश में नहीं। लेखकों को उनकी रचना का उचित मानदेय नहीं दिया जाता और न उन्हें कानूनी सुरक्षा मिलती है। वहीं उनके अधिकारों का घोर उल्लंघन होता है।’
यह बात जानीमानी कवयित्री डॉ. शकीला बानो ने कही। इनका कहना था कि हमारे देश कई लेखक अपने काम के बदले उचित भुगतान पाने में असफल रहते हैं और उन्हें शोषणकारी शर्तों के तहत काम करने के लिए मजबूर किया जाता है।
प्रतिलिपि अधिकार का उल्लंघन
डॉ. शकीला ने कहा कि कई बार लेखकों के काम को बिना उनकी अनुमति या उचित श्रेय के बिना कॉपी किया जाता है, जिससे उनके प्रतिलिपि अधिकार का उल्लंघन होता है। अनेक लेखक असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं और उन्हें उचित कानूनी सुरक्षा या सामाजिक सुरक्षा भी नहीं मिलती। देश में कुछ लेखकों को शोषणकारी कार्यस्थल पर काम करने के लिए मजबूर किया जाता है, जहां उन्हें उचित वेतन, लम्बी कार्य अवधि या अपमानजनक व्यवहार का सामना करना पड़ता है। अनेक बार प्रकाशक लेखकों की किताबें तो छाप देते हैं, लेकिन अनुबंध के मुताबिक रायल्टी का भुगतान नहीं करते है और बिना बताए नया एडीशन जारी करते रहते हैं।
लेखकों का शोषण गंभीर मुद्दा
डॉ. शकीला का कहना है कि भारत में लेखकों का शोषण एक गंभीर मुद्दा है जिसे हल करने के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यक्ता है। लेखकों को संगठित करने, उनके अधिकारों की रक्षा करने और उनके काम को बढ़ावा देने से उन्हें शोषण से बचाया जा सकता है। उन्हें उनके काम के लिए उचित सम्मान और मान्यता तभी मिल सकती है।
शासन को करना चाहिए पहल
डॉ. शकीला का कहना है कि भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में निहित शोषण के विरूध्द अधिकार मानवीय गरिमा, स्वतंत्रता और सामाजिक समाजिक न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह अधिकार एक संरक्षक के रूप में कार्य करता है, लेकिन इसके बावजूद देश में लेखकों के साथ शोषण हो रहा है। इसके लिए शासन को पहल करना चाहिए, वहीं रचनाकारों को भी संगठित होना पड़ेगा। एक समय ऐसा था जब मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग ने बड़ी संख्या में लेखकों की किताबें प्रकाशित की थी, इतना ही नहीं उन्हें रायल्टी भी दी थी, वैसा ही अभियान सभी प्रदेशों में संस्कृति विभागों के माध्यम से चलाया जाना चाहिए।
प्रभा खेतान के रचनाकर्म पर शोधकार्य
उत्तरप्रदेश के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से समृध्द नगर कर्वी चित्रकूट में जन्मी शकीला बानू ने हिंदी साहित्य में पीएचडी किया है। इनके शोध का विषय प्रसिध्द लेखिका प्रभा खेतान के रचनाकर्म पर केंद्रित रहा है। साहित्य और समाज के बीच पुल बनाने वाली डॉ. शकीला की लेखनी मुख्यतः स्त्री अनुभवों, सामाजिक संरचनाओं, आत्मचेतना और संवेदनात्मक व्दंव्द को स्वर देती आई हैं। इनका मानना है कि कविता केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, बल्कि आत्मा की पुकार और समय का साक्ष है। इनकी रचनाओं में एक ओर जहां स्त्री अस्मिता की गूंज सुनाई देती है, वहीं दसरी तरफ जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियां और सामाजिक सच्चाइयां भी स्पष्ट रूप से प्रतिबिंबित हैं। डॉ. शकीला जी निरंतर समकालीन विषयों जैसे नारी स्वतंत्रता, सामाजिक विसंगतियां, प्रेम, आत्मसंघर्ष और लोकजीवन पर केंद्रित रचनाएं लिखती रही हैं। इनकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।
डॉ. शकीला की चुनिंदा कविताएं
समर्पण
कैसा होता है किसी
स्वप्न का प्रत्यक्ष हो जाना
पर जब तुम सामने होते हो
तो लगता है-
शब्द, जो स्वप्न रचते थे,
अपर्याप्त थे, कल्पनाएँ,
जो ऊँचाइयाँ गढ़ती थीं, सीमित थीं
तुम्हारी उपस्थिति के आगे
हर स्वप्न छोटा पड़ जाता है
जैसे किसी दीपक की लौ
सूरज के प्रकाश में मौन हो जाए
तुम्हारी आँखों में एक ऐसा आकाश है
जहाँ हर चाह, हर उम्मीद
तारों की तरह टिमटिमाती है।
तुम्हारे होने का एहसास
किसी ठहरे जल में
उठी हल्की सी लहर सा है-
शांत, फिर भी जीवन से भरपूर
तुम्हारे शब्द
मौन को नया अर्थ देते हैं
साँसों की लय
हृदय की धड़कनों से मिलकर
एक नई रचना रचती है-
जैसे प्रकृति के दो सुर
एक ही राग में विलीन हो जाएँ
प्रेम कोई कल्पना नहीं,
तुम्हारे सामने वह सजीव
सत्य बन जाता है-
ना कोई भाषा माँगता है
ना ही परिभाषा,
बस तुम्हारी एक झलक
हर प्रश्न का उत्तर बन जाती है
तुम हो, तो लगता है
प्रेम कोई मांग नहीं,
बल्कि एक समर्पण है-
जिसमें खो जाना ही
स्वयं को पाना होता है
तुम्हारा होना
जैसे आत्मा को कोई प्राचीन स्मरण
कोई अनकहा वादा
जो जन्मों से निभाया जा रहा हो
हर श्वास, हर धड़कन
जैसे तुम्हारे नाम की पूजा बन जाए-
निस्वार्थ, नीरव
परंतु संपूर्ण
तुम्हारे साथ कोई
भविष्य नहीं सोचती
क्योंकि हर वर्तमान पल
तुम्हारी उपस्थिति में
ही पूर्ण हो जाता है
ना कोई आरंभ चाहिए,
ना किसी अंत की चिंता-
प्रेम बस बहता है,
जैसे नदी किसी समुद्र की
पहचान नहीं पूछती
बस समर्पित होती जाती है।
शिला से स्वर तक
मत बाँधो स्वयं को
किसी और की मुक्ति की आशा में
तुम कोई प्रतीक्षा नहीं
कोई याचना नहीं
तुम वह प्रश्न हो,
जिसका उत्तर समय भी खोजता रहा
तुम वह ध्वनि हो
जिसे सदियों से मौन बाँधता रहा
मिटा दो उस श्राप की बेड़ियाँ
जो तुम्हारे अस्तित्व को जकड़े हुए हैं
क्या कोई शाप
तुम्हारी चेतना को बाँध सका?
क्या कोई क्रोध तुम्हारी
आत्मा को जड़ कर सका?
पत्थर कहकर छोड़ दिया गया तुम्हें
पर क्या सच में कोई स्त्री
कभी पत्थर होती है?
वह तो धड़कती है
घुलती है, रिसती है
अपनी वेदना में भी
सृजन के स्वर बुनती है
वह जिसने तुम्हें शिला कहा
क्या उसने तुम्हारी पीड़ा सुनी थी?
क्या किसी ने पूछा कि तुम्हारे मौन में
कितने तूफान कैद थे?
तुम अपनी मुक्ति स्वयं हो, अहिल्या!
कोई नहीं आएगा तुम्हें मुक्त करने
क्योंकि जिस क्षण तुमने
अपनी पीड़ा को स्वर दिया
उसी क्षण तुम पत्थर से
चेतना बन गईं
अब कोई ऋषि, कोई अवतार
तुम्हारी कथा का नायक नहीं होगा
तुम्हारा उद्धार केवल तुम्हारे भीतर है
तुम अपनी रोशनी स्वयं हो, अहिल्या!
जीवन का सत्य परिवर्तन
मैं प्रेम करती हूँ हर परिवर्तन से
नदी से, जो चट्टानों से
टकराकर भी बहती है
अपने घावों को समुंदर में
समर्पित कर देती है
कभी शांत, तो कभी उद्दाम,
कभी निर्मल, तो कभी मटमैली
फिर भी वह नदी ही रहती है
अपनी पहचान से
कभी विचलित नहीं होती
मैं उस नदी से प्रेम करती हूँ
हवा से, जो कभी मृदुल स्पर्श बनती है
तो कभी सैलाब की क्रूर गर्जना
कभी थपकियां देकर सुलाती है
तो कभी झंझावात बनकर रुलाती है
फिर भी वह हवा ही रहती है
बिना किसी बंधन के
स्वतंत्र, अपनी गति में
मैं उस हवा से प्रेम करती हूँ
सूरज से, जो हर सुबह
अंधेरों को पीछे छोड़
अपनी रश्मियों का सेतु बांधता है
जो जलाकर भी संजीवनी देता है
जो तपकर भी मुस्कुराता है
जो डूबकर भी अस्तित्ववान रहता है,
मैं उस सूरज से प्रेम करती हूँ
पत्तों से, जो पतझड़ में पीले होकर
धरती की गोद में समा जाते हैं
लेकिन मिटकर भी मिटते नहीं,
मिट्टी में घुलकर नवांकुर बन जाते हैं
वे सिखाते हैं कि नष्ट होना अंत नहीं
बल्कि पुनः जन्म लेने की तैयारी है
मैं उन पत्तों से प्रेम करती हूँ
मैं परिवर्तन से प्रेम करती हूँ,
क्योंकि परिवर्तन ही जीवन का सत्य है
क्योंकि हर परिवर्तन
एक नयी राह बनाता है
क्योंकि मैं जीवन से प्रेम करती हूँ।