पुस्तक समीक्षा : बीते वक़्त के वैभव और व्यवस्था को सामने लाने का जतन
लम्बे शोध के उपरान्त लिखी गई यह पुस्तक अपनी प्रामाणिकता स्वयंमेव साबित करती है। यह एक तरह से शोध ग्रंथ है जो इस क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है ।
⚫ आशीष दशोत्तर
इतिहास लेखन आसान नहीं होता। ऐतिहासिक घटनाएं जितनी मनुष्य को आकर्षित करती हैं उनके पीछे का सच उतना ही उलझाता है । हर ऐतिहासिक तथ्य की प्रमाणिकता सिद्ध किए बग़ैर इतिहास लेखन से गुज़रना बड़ा मुश्किल होता है । इतिहास के प्रति लगाव रखने और पूरी तरह समर्पित व्यक्ति ही ऐसा साहसिक कार्य कर पाते हैं।

इस मायने में ऐतिहासिक संदर्भों के ज्ञाता और तीन दशक से अधिक समय से इतिहास संबंधी लेखन कर रहे नरेंद्र सिंह पंवार द्वारा लिखी गई पुस्तक ' परमार (पंवार) राजवंश रत्नमाला ' अपने इतिहास को जानने का एक महत्वपूर्ण ज़रिया प्रतीत होती है। यह पुस्तक 18 भागों में विभाजित है जिसे लेखक ने रत्न नाम दिया है । यानी 18 रत्नों से सुसज्जित यह एक ऐसा शाब्दिक आभूषण है जो बहुत कीमती है , बहुत सुसज्जित, बहुत अलंकृत और बहुत महत्वपूर्ण भी। पहले रत्न में राजवंश की प्रमुख महत्वपूर्ण जानकारियां एकत्रित हैं , जिनमें परमार राजवंश के गोत्र, कुलदेवी और देश और देश के बाहर स्थित विभिन्न धार्मिक स्थलों का वर्णन है । दूसरा रत्न राजवंश की उत्पत्ति संबंधी विभिन्न मान्यताओं और उनकी विवेचनाओं पर आधारित है । तीसरा रत्न पंवार राजवंश की वंशावलियों की जानकारी देता है । चौथा रत्न राजवंश की विभिन्न शाखाओं के संक्षिप्त इतिहास से परिचित करवाता है । पांचवा रत्न मालवा की भौगोलिक जानकारी और चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विवेचना करता है । छठा रत्न यशस्वी परमार कुल तिलक विक्रम संवत के प्रणेता चक्रवर्ती सम्राट वीर विक्रमादित्य महाराज के जीवन पर केंद्रित है। सातवें रत्न में महाराजाधिराज भोज देव और उनके शासनकाल की महत्वपूर्ण उपलब्धियां का विस्तृत वर्णन है , जिसमें धार की भोजशाला को लेकर बहुत महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है । आठवां रत्न भोज देव के पश्चात पंवार राजवंश के शासकों की जानकारी देता है। नवें रत्न में भोज देव की स्वप्न नगरी धार और मांडवगढ़ के पौराणिक ऐतिहासिक और प्राकृतिक स्थलों का वर्णन है । साथ ही धार का पुनर्स्थापित पंवार राजवंश और उसके शासकों की जानकारी है । दसवें रत्न में मालवा में निवासरत और विस्थापित पंवार राजवंश का वर्णन है । इसके साथ ही राजगढ़ नरसिंहगढ़ के उम्मत परिवार और ठिकाना भैसोला का भी वर्णन है । 11वें रत्न में विक्रमादित्य से संबंधित शोधपूर्ण आलेख है। 12 वें रत्न में राजस्थान के परमार राजवंश की विस्तृत जानकारी दी गई है । 13 वें रत्न में गुजरात के परमार राजवंश की जानकारी दी गई है । 14 वें रत्न में बिहार के परमार राजवंश की जानकारी है। 15 वें रत्न में उत्तराखंड के परमार राजवंश की जानकारी शामिल है। सोलहवें रत्न में महाराष्ट्र के मराठा परमार राजवंश की जानकारी तथा हरियाणा , पंजाब के परमार राजवंश की जानकारी दी गई है। 17 वां रत्न राजा भोज जन कल्याण सेवा समिति द्वारा किए गए सामाजिक कार्यों की जानकारी देता है वहीं 18 वां रत्न राजस्थान, गुजरात, बिहार, उत्तराखंड , महाराष्ट्र , हरियाणा , पंजाब आदि प्रदेशों की विशिष्ट जानकारियां प्रदान करता है।
यह पुस्तक सिर्फ़ जानकारी परक पुस्तक ही नहीं है बल्कि इसके भीतर शामिल कई तथ्य ऐसे हैं जो देशभर में चर्चा के केंद्र में रहे हैं । इसके साथ ही इसमें कई तथ्यों का सचित्र वर्णन किया गया है , जैसे राजवंशावलियों के राजकीय चिन्ह , उनमें समय-समय पर हुए परिवर्तन भी इसमें दिए गए हैं। पुस्तक में यह भी बताया गया है कि परमार राजवंश की उत्पत्ति कैसे हुई , क्षत्रिय से राजपूत तक की यात्रा और फिर 36 राजपूत वंश किस तरह बने । पुस्तक में परमार राजवंश की उत्पत्ति और उनके राज्य विस्तार को जैन संत पद्मश्री मुनि जिनविजयजी की कलम से भी दिया गया है जो इस पुस्तक के तथ्यों को प्रमाणित भी करता है।
इस पुस्तक के हर एक पृष्ठ से गुज़रना कई नए संदर्भों को प्राप्त करना है। मालवा वंश और परमार राजवंश का क्या संबंध रहा । इस दौरान साहित्यिक और कलात्मक गतिविधियां किस तरह आगे बढ़ती रहीं , पुरातात्विक दृष्टि से परमार राजवंश के शासकों ने किस तरह क्षेत्र को समृद्ध किया , राजवंश से निकले वंशजों ने देश के विभिन्न क्षेत्रों में अपना राज्य स्थापित कर किस तरह अपनी वंश परंपरा को आगे बढ़ाया इसका भी वर्णन है। पंवार साम्राज्य के विभिन्न अभिलेख जहां से प्राप्त हुए उसका मानचित्र भी पुस्तक में दिया गया है।
दरअसल पूरे मालवा क्षेत्र ही नहीं देश के विभिन्न क्षेत्रों में परमार वंश के शासकों ने जो महत्वपूर्ण कार्य किया, वह सभी इस पुस्तक में संग्रहित हैं । महाराजा विक्रमादित्य और महाराजा भोज के जीवन परिचय , उनके द्वारा रचित विभिन्न ग्रंथों और उनके द्वारा किए गए कार्यों का वर्णन बहुत सूक्ष्मता से इसमें किया गया है । उस दौर की शासन व्यवस्था , पारिवारिक व्यवस्था और समाज के प्रति एक राजा का क्या दायित्व होता है , उसे भी इस पुस्तक के माध्यम से विस्तारपूर्वक समझाया गया है । एक तरह से देखा जाए तो यह पुस्तक हमारे प्राचीन शासकों की व्यवस्था को समझने का एक महत्वपूर्ण माध्यम साबित होती है । जैसे मालवा में इब्नबतूता कब आए , यह शायद किसी को नहीं मालूम लेकिन यह पुस्तक इस बात को रेखांकित करती है कि सन 1342 में इब्नबतूता मालवा में धार और उज्जैन तक आए थे । ऐसे ही ऐतिहासिक तथ्य इसमें ढूंढे जा सकते हैं ।महाराजा वीर सिंह देव और जहांगीर की अटूट मित्रता ,महाराजा चंपाराय की वीरांगना पत्नी सारंधा की वीरता की कहानी रोमांचित करती है। ठिकाना भैसोला की वंशावली भी इसमें विस्तार से दी गई है जहां के सम्पादक निवासी हैं।
पुस्तक में एक महत्वपूर्ण अध्याय ' प्राचीन अरबी- फ़ारसी साहित्य में विक्रमोपाख्यान' शीर्षक से है जो अरबी फ़ारसी और हिंदी साहित्य की प्राचीन परंपरा से परिचित करवाता है । यह आलेख बताता है कि विक्रमादित्य संबंधी अरबी में उपलब्ध साहित्य पुस्तक ' शायर - उल - ओकुल ' में समाहित है। इसका हिन्दी में अर्थ ' कविता के बाद की सैर ' है। इस पुस्तक का हस्तलिखित संस्करण इस्तांबुल के राजकीय पुस्तकालय में आज भी सुरक्षित है। इस ग्रंथ का संकलन और संपादन बगदाद के खलीफा हारून अस्मई ने किया था जिसे अरबी काव्य साहित्य का कालिदास कहा जाता है । सन 1772 में तुर्की के शासक सलीम तृतीय ने बहुत परिश्रम से किसी प्राचीन प्रति के आधार पर इसे हस्तलिखित करवाया था । इस ग्रंथ के पृष्ठ कच्ची रेशम की एक किस्म हरीर के बने हैं, इस कारण भी यह मूल्यवान पुस्तकों में शामिल है। इस पुस्तक का प्रथम अंग्रेजी संस्करण 1864 में बर्लिन से प्रकाशित हुआ था।
इस पुस्तक की ख़ास बात यह है कि इसे पढ़ने पर ऐसा महसूस नहीं होता कि आप इतिहास की किसी भारी भरकम पुस्तक से गुज़र रहे हैं । पुस्तक के हर पृष्ठ पर एक संघर्ष गाथा नज़र आती है । राजवंश से जुड़े बहुत महत्वपूर्ण चित्र दिखाई देते हैं । लोक देवता इस पुस्तक में नज़र आते हैं । यह पुस्तक इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह किसी एक क्षेत्र पर केंद्रित नहीं हो कर देश के विभिन्न स्थानों पर , जहां-जहां परमार और पंवार राजवंशों का शासन रहा , उन सबको यह पुस्तक समेटती है । एक तरह से यह एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जो इस पूरी वंशावली को शब्दों के माध्यम से, चित्रों के माध्यम से , तथ्यों के माध्यम से और कथाओं के माध्यम से समझाता है । इस पुस्तक को प्रारंभ से लेकर अंत तक आकार देने में लेखक का कितना श्रम हुआ होगा यह सहज ही अनुमान नहीं लगाया जा सकता । पुस्तक के सम्पादक नरेंद्र सिंह पंवार ने अपने जुनून को इस हद तक पहुंचाया कि वे पंवार और परमार राजवंश से जुड़ी जानकारियां देशभर से एकत्रित कर सके और उन्हें इस वृहद पुस्तक के माध्यम से लोगों तक प्रस्तुत कर सके । इतिहास से जुड़े विद्यार्थियों और ऐतिहासिक तथ्यों के प्रति लगाव रखने वाले लोगों को यह पुस्तक अवश्य पढ़ना चाहिए।
एक हज़ार से अधिक पृष्ठों की यह क़िताब पंवार राजवंश के इतिहास से परिचित तो करवाती ही है साथ में प्राचीन स्मारकों के चित्रों और राजवंशावली के साथ उसके कला और वैभव को भी अभिव्यक्त करती है। छाजेड़ प्रिंटरी, रतलाम द्वारा मुद्रित यह पुस्तक इस मायने में भी बेहतर है कि इसकी छपाई बहुत आकर्षक है । जितना आकर्षण इस पुस्तक को देखकर होता है उतना ही लगाव इस पुस्तक से गुज़र कर भी होता है । लेखक, सम्पादक नरेंद्र सिंह पंवार ने इस पुस्तक को प्रकाशित करने में जिन संघर्षों का सामना किया वे हमें रोमांचित कर देते हैं । लगातार 10 वर्षों तक शोध कर विभिन्न स्थानों का भ्रमण करना , जानकारियां एकत्र करना और उनकी सत्यता की पुष्टि करते हुए सिलसिलेवार सभी कुछ दर्ज़ करना। लम्बे शोध के उपरान्त लिखी गई यह पुस्तक अपनी प्रामाणिकता स्वयंमेव साबित करती है। यह एक तरह से शोध ग्रंथ है जो इस क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है ।
⚫ परमार (पंवार) राजवंश रत्नमाला
⚫ सम्पादक - नरेन्द्र सिंह पंवार
⚫ मूल्य - तीन हज़ार रुपए
⚫ प्रकाशक - राजा भोज जनकल्याण सेवा समिति, रतलाम

⚫ 12/2, कोमल नगर
रतलाम -457001 (म.प्र.)
मो- 9827084966
Hemant Bhatt