पुस्तक समीक्षा : काव्य संग्रह "तट पर हूं तटस्थ नहीं"
डॉ. शोभा जैन स्वयं शब्द साधिका हैं । शब्दों का सही स्थान पर सही चयन करना उनका कौशल है । शब्द का प्रवाह , भावों और विचारों को भी अपने साथ प्रवाहमान कर देता है और इस प्रवाहमयी यात्रा में शब्दों को पथरीले और जटिल मार्ग से भी गुजरना पड़ता है ।

⚫ समीक्षक : श्वेता नागर
" किसी दक्ष तैराक की तरह आदमी लहर बनकर उठता है
ले जाता किनारे का कूड़ा करकट
श्रीफल का आवरण , कुछ अधजली अगरबत्तियां ,
चंद सिक्के और अस्थियों की राख भी
लहर या तो बहा ले जाती
या छोड़ जाती है अपने पीछे एक ' तट '
'तट ' पर खड़ा आदमी तैराक हो जरूरी तो नहीं
तैराक तटस्थ हो जरूरी ये भी नहीं।"
प्रसिद्ध साहित्यकार , प्रखर वक्ता और सोशल मीडिया पर अपने आलेखों से लोकप्रियता प्राप्त करने वाली और इसी लोकप्रियता के कारण साहित्य अकादमी म.प्र. के राष्ट्रीय स्तर के नारदमुनि सम्मान / पुरस्कार से सम्मानित डॉ. शोभा जैन का काव्य संग्रह " तट पर हूं तटस्थ नहीं " में व्यक्ति के हृदय में उठने वाले सभी भावों की सार्थक अभिव्यक्ति है चाहे वे मानवीय संवेदनाओं के कोमल भाव हों , या अन्याय के विरुद्ध विद्रोह के कठोर स्वर।
डॉ शोभा जैन ऐसी साहित्यकार हैं जिनकी लेखनी - कथनी और करनी में अंतर नहीं होता है यानी पूरी ईमानदारी , पारदर्शिता के साथ वे किसी भी विषय पर अपने विचारों को व्यक्त करने का माद्दा रखती हैं। फिर चाहे उन विचारों के पीछे प्रशंसकों/ समर्थकों की भीड़ न भी हो।
क्योंकि वर्तमान समय में कलम का झुकाव स्वयमेव "सुविधाजनक सत्य" की ओर हो जाता है यानी हम सत्य को इस तरह परोसना चाहते हैं कि उसका वास्तविक कटु स्वाद का आभास पाठक को न हो पाए यानी लेखक की डिप्लोमेटिक लेखनी । जिसका परिस्थिति, स्थान और व्यक्ति के अनुसार अर्थ बदल जाता है । स्वयं उन्हीं की इस काव्य संग्रह की पंक्तियां हैं जो इसी पीड़ा को व्यक्त करती हैं -
"अर्थ की अभ्यर्थना में,
अनर्थ बिखरे पड़े हैं ,
अकथ्य को कहते नहीं ,
सत्य को सहते नहीं .."
डॉ. शोभा जैन स्वयं शब्द साधिका हैं । शब्दों का सही स्थान पर सही चयन करना उनका कौशल है । शब्द का प्रवाह , भावों और विचारों को भी अपने साथ प्रवाहमान कर देता है और इस प्रवाहमयी यात्रा में शब्दों को पथरीले और जटिल मार्ग से भी गुजरना पड़ता है । इसी शब्द - यात्रा का डॉ शोभा जैन इस तरह वर्णन कर रहीं हैं -
"कोई शब्द कितने रास्ते पार
कर आता है पास,
जाने कितनी खाता ठोकरें,
गिरता संभलता है,
छूता हुआ , जाने कितनी,
ध्वनियां , विचार - प्रवाह
पुरानी पृष्ठभूमि,
जिससे सर्वदा हम अनभिज्ञ ही रहे* ,
शब्द आसानी से नहीं
पहुंचते हम तक,
कितनी आसानी से..
छूट जाते हैं हमसे ..।
कई बार मनुष्य ,मनुष्यता के पथ पर आगे बढ़ते हुए असमंजस का शिकार हो जाता है ,जिससे विवेक बुद्धि नष्ट हो जाती है, और मनुष्य की इसी विवेक बुद्धि को जागृत करने की चेष्ठा करती हुई दिखाई देती हैं डॉ. शोभा जैन अपनी इस काव्य रचना में , जिसमें कहीं न कहीं उनका सात्विक आक्रोश भी दिखाई दे रहा है -
"क्या मनुष्य खाली पात्र बन गया है
जिसे जहां भी चाहा उठाकर रख दिया,
कभी भी कुछ भर दिया,
कभी भी कुछ उड़ेल दिया,
असहमति से जन्में विरोधों को
सहने के लिए
प्रतिरोध से जन्में प्रतिशोध
लेने के लिए
सच को सच न कहने के लिए
सच न सुनने के लिए
क्या हम खाली पात्र हैं ,
विद्रोह से भरने के लिए ?
या पात्र हैं सिर्फ अभिनय के लिए ।"
कहा जा सकता है डॉ शोभा जैन का काव्य संग्रह मानवीय मूल्यों , चेतना , अनुभूति , नीर क्षीर विवेक , जागृत अंतर्मन , विचारों भावनाओं के संतुलन , पारदर्शिता , और स्व अन्वेषण/ मूल्यांकन का आईना है , जिसमें देखकर आप अपनी छवि को झुठला नहीं सकते , और इस काव्य संग्रह के खंड 2 में स्त्री केंद्रित कविताएं भी हैं जिनमें नारी मनोभावों के अनछुए पहलुओं को चित्रित करने का प्रयास किया गया है ,इन्हीं अनछुए मनोभावों को खूबसूरती से अभिव्यक्त करती उनकी काव्य पंक्तियां हैं -
"ठीक वैसे ही
वे धूल मिट्टी से सनी
चूल्हे की सौंधी महक
में भीगी हुई
धूप का उबटन लगाए
रोज निखरती हैं
खेत की बालियों में
मेढ़ पर ठहरे पानी सी
थोड़ा आश्रय पाती
क्षितिज की छांव तले
सूर्योदय से
सूर्यास्त के बीच
कभी खिलती हैं
ग्रीष्म के अंतिम गुलाब - सी।"
डॉ. शोभा जैन के इस काव्य संग्रह की भाषा, शब्द कौशल , शब्द विन्यास ऐसा है कि पढ़ते समय लग ही नहीं रहा कि यह उनका पहला काव्य संग्रह है इससे जुड़ा मेरा संस्मरण भी है जब मैंने एक कार्यक्रम के लिए उनके साथ इंदौर से हरदा की यात्रा की थी ,तब उन्होंने मुझसे कहा था ( तब तक मेरे हाथों में उनका काव्य संग्रह नहीं आया था ) " देखो श्वेता ! मुझे कविता पढ़ना बहुत पसंद है लेकिन मुझे कविता लिखना नहीं आता ।" और तब मैंने इस बात को सहजता से लेते हुए सुन लिया था । लेकिन जब यात्रा के अंतिम पड़ाव पर उन्होंने मुझे उनका काव्य संग्रह "तट पर हूं तटस्थ नहीं " सस्नेह भेंट किया तो मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही, मैंने तब मन में सोचा कि आज के इस समय में जहां हर कोई स्वयं को बिना स्तरीय काव्य रचना के कवि या कवयित्री मान रहा है वहीं इतने स्तरीय काव्य संग्रह की रचनाकार की इतनी विनम्रता ! यही विनम्र भाव उन्हें स्तरीय रचनाकार बनाते हैं।