मुद्दे की बात : संघ की चुप्पी सवालों के घेरे में? क्या संघ को ही ऐसे मंत्री को निकाल बाहर करने के निर्देश नहीं देने थे मोहन सरकार को?

जब भाजपा मध्यप्रदेश में वीरेन्द्र कुमार सकलेचा से लेकर उमा भारती तक की बगावत से नहीं डरी तो फिर विजय शाह तो क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा की हैसियत में भी नहीं है। तो फिर इतने तपस्वी आदिवासी नेताओं के बीच भाजपा की यह क्या मजबूरी है कि लडखड़ाते शरीर वाले गंदगी से बजबजाती जुबान वाले विजय शाह को यूं झेलते रहें?

मुद्दे की बात : संघ की चुप्पी सवालों के घेरे में? क्या संघ को ही ऐसे मंत्री को निकाल बाहर करने के निर्देश नहीं देने थे मोहन सरकार को?

प्रकाश भटनागर

एक होते हैं इंद्रेश कुमार। एक होता है मुस्लिम राष्ट्रीय मंच। एक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकारी मंडल के सदस्य हैं। और दूसरा उसका अनुषांगिक संगठन, जो राष्ट्रवादी मुस्लिमों के बीच काम करता है या फिर मुस्लिम समुदाय को राष्ट्रवाद के अपने तौर तरीके बताता सीखाता है। मध्यप्रदेश सरकार के मंत्री विजय शाह की कर्नल  सोफिया कुरैशी पर की गई घटिया और अभद्र टिप्पणी पर संघ के इस संगठन की प्रतिक्रिया सबसे पहले आनी चाहिए थी। अब कर्नल सोफिया कुरैशी या उनके खानदान के बारे में लोग इतना जान चुके हूं कि उनके राष्ट्रवादी होने पर किसी तरह का सवाल ही नहीं उठता है। तो मुस्लिमों को संघ से जोड़ने वाले इस संगठन को क्या ऐसे समय चुप रहना था? और तो और क्या संघ को ही ऐसे मंत्री को निकाल बाहर करने के निर्देश नहीं देने थे मोहन सरकार को? यह तो हुई इस प्रकरण पर पहली आपत्ति।

अदालती कार्रवाई के पीछे काम कर रही वैचारिक सोच

इस मामले में दूसरी आपत्ति मध्यप्रदेश हाईकोर्ट पर भी है। बात केवल मध्यप्रदेश की ही नहीं है, देश भर में नेताओं की जुबानें विपक्षियों पर जहर उगलती हैं। इस मामले में हमाम में सभी राजनीतिक दल और नेता अपनी पैदाईशी वास्तविकता में हैं। यहां विजय शाह ने कर्नल सोफिया कुरैशी पर कुछ कहा तो उत्तरप्रदेश में रामगोपाल यादव को विंग कमांडर व्योमिका सिंह की जात याद आ गई। ऐसे ढेरों उदाहरण हाल के एक दो दशकों में भरे पड़े हैं। कितने मामलों में अदालतों ने स्वत: संज्ञान लिया है? क्या इस अदालती कार्रवाई के पीछे भी कोई वैचारिक सोच काम कर रही है।

हुई जले हुए नोट की पुष्टि मगर एफआईआर फिर भी नहीं

इस मामले में एक और बात ध्यान खींचती है। निश्चित है कई मर्तबा यह ज्यूडिशियल एक्टिविज्म का दौर दिखता है, लेकिन विजय शाह जैसे प्रकरण के सू मोटो संज्ञान वाले मामले कम ही दिखते हैं। चार घंटे में ही एफआईआर दर्ज करने का आदेश भी संदेह पैदा करता है। लोगों को यह भी याद है कि दिल्ली हाईकोर्ट के जिस जज के बंगले पर करोड़ों के जले नोटों की पुष्टि हुई है उसकी एफआईआर आज भी दर्ज नहीं है। विजय शाह मामले में सारी जांच की मानिटरिंग का फैसला भी संदेह पैदा करता है कि आखिर माननीय चाहते क्या हैं ? कोर्ट के पास चालान जमा होने के समय भी उसमें खामियां निकालने का मौका होता है। इसलिए इस अति में वह दृश्य सहज रूप से याद आ जाता है, जब सुप्रीम कोर्ट अपने द्वारा ही घोषित फांसी की सजा पाए अपराधी याकूब मेमन को बचाने वालों की खातिर आधी रात को खुद के ही दरवाजे खोल देती है। क्या वही आधी रात वाले चेहरे फिर पूरी ताकत के साथ विजय शाह के मामले में भी अपना असर दिखा गए हैं? भाजपा तो शाह के खिलाफ एक्शन लेने की तैयारी में आ ही गई थी, लेकिन कोर्ट का दखल इस पार्टी को इसलिए रोक गया कि उसने अदालती निर्णय आने तक खुद को न्याय व्यवस्था के सम्मान में खड़ा कर लिया?

दो कारणों से बचा रही भाजपा शाह को

इस मामले में गलती पर भाजपा भी है। यह प्रकरण सामने आते ही भाजपा को विजय शाह से इस्तीफा मांग लेना था या फिर मुख्यमंत्री को ऐसे मंत्री को बर्खास्त करने का कदम उठा लेना चाहिए था। अब भाजपा दो कारणों से विजय शाह को फिलहाल बचा रही है। एक तो हो गया अदालती दखल और इस दखल के पीछे भाजपा को जो नजर आ रहा है वो है वहीं आधी रात वाले अदालती चेहरे। लिहाजा, भाजपा अब इस मामले में अदालत के फैसले पर आ कर टिक गई है। मामला अब न्यायालय में विचाराधीन हो गया। 

भाजपा का वर्तमान नेतृत्व भूल रहा अपना अतीत

क्या इसके अलावा विजय शाह को मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाने में कोई अड़चन आनी चाहिए। विजय शाह के आदिवासी नेता होने का जो ढिंढोरा पीटा जा रहा है, उसमें दम नहीं है। एक विधानसभा सीट से लगातार जीतने भर से कोई आदिवासियों या गोंड आदिवासियों का नेता नहीं हो जाता। अगर ऐसा है तो भाजपा का वर्तमान नेतृत्व अपना अतीत भूल रहा है। भाजपा ने जनसंघ के जमाने में भी धार और खरगौन जैसे लोकसभा क्षेत्रों और निमाड़ के कई विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव जीते हैं, जब ले देकर पूरे देश में ही कांग्रेस का बोलबाला था। शिवराज के कार्यकाल में अपनी अभद्र टिप्पणी पर चार महीने के लिए मंत्रिमंडल से बाहर होकर उनकी वापसी भी मेरे लिए तो सवालों के दायरे में ही है। यह भी समझ से परे है कि आखिर विजय शाह में ऐसे कौर से सुरखाब के "पर" लगे हैं कि वो अब अकेले ऐसा नेता हो गए जो भाजपा की सरकार में 2003 से अब तक लगातार मंत्री हैं। 

अपने अलावा कितनों को चुनाव जितवा दिए विजय शाह ने?

भाजपा की तो बात ही जाने दीजिए आज कांग्रेस या किसी भी दीगर पार्टी में कौन सा बड़ा आदिवासी नेता है, जिसके नाम पर पूरे प्रदेश के आदिवासी वोट एकजूट हो सकते हैं और फिर 2003 से 23 तक भाजपा ने जो चुनाव जीते हैं। उनमें विजय शाह ने अपने अलावा कितनों को चुनाव जीता दिया, क्या इस हकीकत से भाजपा नेतृत्व वाकिफ नहीं है। ऐश अय्याशी के लिए जिसकी व्यापक पहचान है, भाजपा उसकी चिंता में दुबली होगी, यह समझ से परे है। भाजपा ने आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड में भी चुनावी सफलताएं पाई हैं। मध्यप्रदेश के अलग अलग आदिवासी बहुल क्षेत्रों में उसकी प्रभावी और मजबूत उपस्थिति है। इसमें विजय शाह का क्या भूमिका होगी, इससे पार्टी नेतृत्व अनजान तो होने से रहा।

राष्ट्रवादी मुस्लिम, संघ को हृदय से स्वीकार्य

फिर से आते हैं, संघ पर। कर्नल कुरैशी तो अपनी सेना के अनुशासन के सम्मान में चुप है। और जो कच्ची-पक्की वाले अंदाज में इन्हीं कुरैशी के लिए ऊटपटांग कह गए, वो चांडाल आचरण को दोहराने पर आमादा हैं। विजय शाह अपनी जुबानी गंदगी उड़ेलने के बाद जब कहते हैं कि मंत्री पद नहीं छोडूंगा, तब मुझे इंद्रेश कुमार मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की याद आ गई। यकीनन आरएसएस को लेकर यह अवधारणा है कि ये मुस्लिम-विरोधी है, लेकिन यह तथ्य तो सूरज की पहली किरण की तरह साफ है कि राष्ट्रवादी मुस्लिम, संघ को हृदय से स्वीकार्य हैं। तो क्या इंद्रेश जी की यह चुप्पी सोफिया कुरैशी के राष्ट्रवाद को नकार रही है? क्यों नहीं अब तक इनकी तरफ से बोला गया कि विजय शाह का इस्तीफा लिया जाए? 

हरसूद के आगे सियासी वजूद नहीं

आप किससे डर रहे हैं? उन विजय शाह से, जिनका हरसूद से आगे कोई सियासी वजूद ही नहीं है! खानदानी लोग पुण्य कर गए कि उन्हें उस  इलाके के आसपास का कुंवर बना गए। बाकी विजय शाह हैं क्या? हरसूद की अपनी बीते आठ विधानसभा चुनाव की बनावट से बाहर आ कर कहीं और से चुनाव लड़ लें? उन्हें दूध और पानी का अंतर पता चल जाएगा। बड़ी बातें प्रायोजित की जा रहीं हैं। विजय शाह आदिवासी सेना बना कर भाजपा से बगावत कर देंगे। जब भाजपा मध्यप्रदेश में वीरेन्द्र कुमार सकलेचा से लेकर उमा भारती तक की बगावत से नहीं डरी तो फिर विजय शाह तो क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा की हैसियत में भी नहीं है। 

...तो फिर उन आदिवासी नेताओं का क्या?

भाजपा के अन्य आदिवासी नेताओं का क्या, जिन्होंने साल 2003 के विधानसभा चुनाव में झाबुआ में पहली बार कांग्रेस को सभी सीटों पर चुनाव हरा दिया था। तब भाजपा ने तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को चुनाव परिणाम आने के दौरान यह कहने के लिए मजबूर कर दिया था कि यदि झाबुआ हार गए तो समझो पूरा प्रदेश हार गए। तो फिर इतने तपस्वी आदिवासी नेताओं के बीच भाजपा की यह क्या मजबूरी है कि लड़खड़ाते शरीर वाले गंदगी से बजबजाती जुबान वाले विजय शाह को यूं झेलते रहें?

⚫ प्रकाश भटनागर