साहित्य सरोकार : लघुकथा "मांगीबाई"

क्यों कोसते हो भाग्य को? ये अपने मालिक लोग है न, सब कुछ होने के बाद भी हमेशा रोते ही रहते हैं और खीज उतारते है हम पर हमारी मजदूरी रोक कर। तुम इन्हें भाग्यवान कहते हो क्या?

साहित्य सरोकार : लघुकथा "मांगीबाई"

पद्माकर पागे

मांगीबाई आज अकेली ही काम पर चल दी थी। मांगी का पति उँकार को कल से बुखार था, वह आज काम पर जाने की स्थिति में नहीं था। उसकी तो मजबुरी थी न जाती तो रात को खाने के लिए आटा, लूण, तेल, मिर्च की व्यवस्था कैसें होती?

आज कुछ ठंड भी ज्यादा ही थी।शाम होते- होते सर्दी का प्रकोप बढ़ रहा था। वह मजदूरी के पैसे लेकर सामान लेकर अंधेरे के पहले डेरे पर पहुँच जाना चाहती थी। ऊँकार को अब भी बुखार था। उसे उसकी फिक्र थी।

हालचाल पूछने के बाद मांगीबाई खाना बनाने में व्यस्त हो गई थी।
पति की अनिच्छा के बाद भी मांगी के कहने पर उसने पेट में कुछ डाल लिया था। सर्दी बढ़ती ही जा रही थी। करीब दस बजे दोनों लेट गए थे। ठंड थी कि बढ़ती ही जा रही थी। ओढ़ने और बिछाने के नाम पर पैबंद लगा एक कंबल दोनों के लिए था। उसमें यह बढ़ती सर्दी, दोनों कुड़कूड़ाते बतिया रहे थे।

भाग्य को कोसते ऊँकार ने कहा दिनभर मेहनत और कष्ट, फिर भी ओढ़ने-बिछाने, खाने-पीने, सर छुपाने की किल्लत। कैसी जिंदगी? क्या हम मेहनत मजदूरी नहीं करते? फिर क्यो ऐसी स्थिति? वह अपनी दरिद्रता को कोसे ही जा रहा था। हवा के एक ठंडे  झोकें के साथ दोनों पास आ गए थे।

मांगी ने पैबंद लगे कंबल को ठीक करते हुए ऊँकार से कहा देखो भाग्यवान, हमारे पास ओढ़ने को यह कंबल भी है और टुटी -फूटी ये कुटीया भी। वहां देखो बाहर कितने लोग ऐसें ही पड़े है। नीली छतरी के नीचे।
बताओ वे किसे कोसेंगे? क्यों कोसते हो भाग्य को?

ये अपने मालिक लोग है न, सब कुछ होने के बाद भी हमेशा रोते ही रहते हैं और खीज उतारते है हम पर हमारी मजदूरी रोक कर। तुम इन्हें भाग्यवान कहते हो क्या?

पद्माकर पागे, कस्तूरबा नगर, रतलाम