जलजजी और गांधी के जीवन मूल्य

गांधी का प्रभाव जलजजी के जीवन में ही नहीं उनकी लेखनी में भी दिखाई देता है । उनके लेखन में सहजता, सरलता और जिस विनम्रता का दर्शन होता है , वह कहीं न कहीं गांधी के जीवन का हिस्सा प्रतीत होता है ।

जलजजी और गांधी के जीवन मूल्य

जलजजी के 91 वें जन्मदिन पर विशेष

⚫ आशीष दशोत्तर
 
महात्मा गांधी ने कहा था , 'व्यक्ति अपने विचारों से निर्मित एक प्राणी है, वह जो सोचता है वही बन जाता है। ' गांधी स्वयं व्यक्ति नहीं विचार थे । उन्होंने अपने विचारों से स्वयं को ढाला और उस विचार से पूरी दुनिया को यह संदेश दिया कि जो अपने विचारों पर दृढ़ रहता है वह जीवन में सबका स्नेह पता है और सुखी रहता है। महात्मा के विचारों को कई पीढ़ियों ने आत्मसात किया । गांधी के दर्शन को आगे बढ़ाया और अपनी जीवन शैली को उस स्वरूप में ढालने की कोशिश भी की।

हिंदी के विद्वान डॉ.जय कुमार 'जलज' के जीवन पर भी महात्मा गांधी का प्रभाव परिलक्षित होता है। देश जब आज़ाद हुआ तो उनकी उम्र तेरह वर्ष की थी । जलजजी यह बताते भी थे कि गांधी की सभा को उन्होंने बचपन में सुना था । शायद यही कारण रहा हो कि उनके जीवन पर गांधी का प्रभाव रहा।
गांधी का प्रभाव जलजजी के जीवन में ही नहीं उनकी लेखनी में भी दिखाई देता है । उनके लेखन में सहजता, सरलता और जिस विनम्रता का दर्शन होता है , वह कहीं न कहीं गांधी के जीवन का हिस्सा प्रतीत होता है । शायद इसीलिए वे गांधी के न होने पर गांधी को विस्मृत करने और गांधी को केवल प्रतीक बनाकर दीवारों पर टांगने से व्यथित होकर अपनी कविता में कहते हैं- 

मुक्ति भर मिट्टी में 
बांधे थे अनंत आकाश ,
जहां छोड़ तुम गए 
वहीं पर ठहरा है इतिहास ।
भ्रमित दिशाओं , ग़लत निर्णयों 
भ्रष्ट चरणगति वाले कहां जा रहे हम 
इसका भी नहीं हमें आभास ।
तुम्हें पुकारें तो शायद 
तुम उत्तर भी दो लेकिन 
चित्र तुम्हारा टांगा, बस 
फिर मिला कहां अवकाश ?

गांधी का विश्वास लोकतंत्र में था। वे जनता के लिए अपने सर्वस्व को त्याग कर पूरे हिंदुस्तान को एक सूत्र में बांधने के लिए सड़क पर निकल पड़े थे । सुख सुविधाओं का त्याग कर ऐसी जीवन पद्धति अपनाई जिसमें सर्वहित का दर्शन नज़र आता था । यह दर्शन और जीवन जीने की यह शैली हर उस मनुष्य को प्रभावित करती रही जो जन के प्रति अपना लगाव रखता था और यह चाहता था कि प्रत्येक जनता को उसके मूलभूत अधिकार उसकी लोकतंत्रात्मक शक्तियां मिलनी ही चाहिए। जलजजी के लेखन में भी आमजन के प्रति आस्था और लोकतंत्रात्मक वैचारिकता नज़र आती है।
हिन्दी के विद्वान डॉ. राजकुमार शर्मा ने उनकी कविताओं पर अपनी टिप्पणी में यह कहा भी है " जलज संस्कारत: एकांतवादी और लोकतंत्रवादी हैं । वे आत्मस्थ हैं । अपने अधिकार क्षेत्र में रहते हैं । दूसरों के क़रीब ज़रूर होते हैं पर अपने और दूसरों के बीच एक दूरी को , एक भिन्नता को स्वीकार करते हैं । वे आत्मकेंद्रित नहीं हैं । सामंतवाद सोच और अहम का उनके पास नहीं भटकना उनके सहज स्वभाव का हिस्सा है । विविधता तथा बहुलता को  वे स्वीकारते और सम्मान देते हैं।"

गहन अंधकार में भी जलजजी रोशनी की बात करते रहे । रोशनी के पक्ष में खड़े रहे । यह रोशनी गांधी के दर्शन को चरितार्थ करती रही।

भौंहों पर ऐसा भारीपन 
अनुभव करता हूं ,
सौ-सौ मरघट धरे 
सुखों की पतली रेखा हो 
माथे पर इतना गहरा 
अंधियारा बैठा है ,
सूरज ने भी जितना शायद 
कभी न देखा हो।

गांधी होने के लिए एक लंबा जीवन ज़रूरी है। गांधी के यहां 'इंस्टेंट' कुछ भी नहीं था । उन्होंने महावीर के उस दर्शन को आत्मसात किया था जिसमें पहले खुद पर शासन की बात कही गई है और फिर अनुशासन की बात। गांधी ने हर नियम को सबसे पहले स्वयं पर लागू किया और उसके बाद दुनिया से अपेक्षा की कि वह उन नियमों को अपनाएं । गांधी की इस वैचारिकता को जलजजी ने अपनी कई पंक्तियों में अलग-अलग तरह से अभिव्यक्त किया है।

धीरे-धीरे ही खुलती हैं आंखें 
अच्छाइयों की ,
प्रेम , सौहार्द्र , अहिंसा , सत्य 
वक़्त लेते हुए आते हैं धीरे-धीरे।

जलजजी गांधी के कद को जानते थे।उस त्याग को भी महसूस करते थे जो देश के लिए महात्मा गांधी ने किया । यही कारण है कि जब सीमांत गांधी ख़ान अब्दुल गफ़्फार ख़ान का इंतकाल हुआ तो जलजजी के क़लम ने उनकी स्मृति में एक कविता लिखी । इसकी कुछ पंक्तियां इस तरह हैं - 

ऊंची खुली हुई नभ जैसी तप्त देह 
संध्या के सूरज सा दीप्त श्रमित बूढ़ा मुख 
आजानु भुज की उलटी अधखुली हथेली 
कटी को सहारा दिए 
गुलाब की फूल भरी लंबी टहनी को 
किसी ने झुका कर तने पर टिकाया हो ।
मुद्दत के बाद चित्र देखा है सीमा के गांधी का 
मुद्दत के बाद आज देखे हैं अंगारे आंखों में 
बिजली सी कौंधी तमाम रात।

गांधी का जब अवसान हुआ तब जलजजी 14 वर्ष के रहे होंगे। यानी उस वक़्त वे गांधी की मृत्यु को महसूस भी कर रहे होंगे और उसके बाद उपजी परिस्थितियों के गवाह भी होंगे । उनकी यह पीड़ा उनकी रचनाओं के माध्यम से कहीं प्रतीकात्मक रूप से तो कहीं बहुत स्पष्ट दिखाई देती है। 

एक दिन बहुत तेज आंधी में 
हर-हराकर उखड़ा वह ,
उसकी छाया उसके ही भीतर 
सिमट कर रह गई ,
उसकी जड़ें बहुत दिनों तक 
भूमि को पकड़े रहीं 
टूटी हुई शाखाएं दुर्बल रेशों के सहारे 
तने से हिलगी रहीं ,
पत्तियां ने बहुत दिनों बाद मुरझाकर दम तोड़ा 
मरी हुई माता के आसपास 
नन्हे बच्चों सी कोंपलें सूखकर भी 
बहुत दिनों तक पेड़ के इर्द-गिर्द 
गोल-गोल घूमती रहीं।

संस्मरण ' गांधीवादी मन ' में वे सुब्बारावजी की बात करते हुए गांधी की चारीत्रिक विशेषताओं को उद्धृत करते हैं। उनका गांधीवादी मन उन्हें गांधी के क़रीब जाने के लिए कन्याकुमारी तक ले जाता है । वहां जाकर वे लिखते हैं , " यहां पहुंचकर लगता है बस , यहीं रह जाएं । गांधी स्मारक यहीं है । गांधीजी की अस्थियां समुद्र में प्रवाहित करने से पूर्व जिस स्थान पर रखी गई थीं , उसी स्थान पर 1956 में यह स्मारक बनाया गया । तमिल में इसका नाम है -गांधी मंडपम् ।  स्मारक की छत पर एक ख़ास कोण से बने छेद से हर 2 अक्टूबर को सूर्य की किरणें यहां उतरती हैं । वे उसे स्थान का स्पर्श करके लौट जाती हैं । सूर्य जैसे उस स्थान से ही वर्ष भर के लिए ऊष्मा प्राप्त करता है।"
जलज जी कहा करते थे, ' कवि की चिंता केवल उसकी अपनी नहीं होती बल्कि वह समूची मानवता के लिए चिंतित होता है । वह पेड़-पौधों के प्रति चिंतित होता है । वह जल स्त्रोतों के प्रति चिंतित होता है। वह हर उस पीड़ा के प्रति चिंतित होता है जिसे वह महसूस करता है । वरना बरसात में भीगते व्यक्ति को मरुस्थल की चिंता भला कहां होती है ? ' 
जलज जी ने अपने गीतों में इस चिंता को भी ज़ाहिर कर यह संदेश दिया कि मनुष्यता के तार इतने छोटे नहीं है जो सीमाओं के दायरे में क़ैद रहें। मनुष्य की आत्मा उसी तरह जुड़ी हुई है जैसे आसमान से बरसते जल और तपती पृथ्वी की आत्मा। वे प्रकृति के बिम्बों के माध्यम से मनुष्य के अभावों पर भी रोशनी डालते हैं।

 मैं प्यासा रह गया ,बादलों के पनघट पर भी 
 वे जो मरुथल में बैठे हैं ,उनका क्या होगा ? 
 तप हो या सादा जीवन हो 
 किससे भूख सहन होती है ,
 सिर छप्पर के लिए तरसता 
 काया बिना वसन रोती है । 
 मैं तन के घावों को सीने में निश्शेष हुआ 
 वे जो मन से भी घायल हैं उनका क्या होगा।

श्रम और कर्म की साधना में विश्वास रखने वाले जलज जी ने अपनी साहित्य साधना से देश में जो स्थान पाया वह अद्भुत था । एक समय देश के शीर्षस्थ गीतकारों में जलज जी अग्रणी पंक्ति में शुमार रहे। जिस समय किसी पत्र पत्रिका में रचना छपना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी , उस दौर में जलज जी की रचनाएं साप्ताहिक हिंदुस्तान ,नवभारत टाइम्स में निरंतर छपा करती थीं । महादेवी वर्मा की पत्रिका में जलज जी की रचनाएं प्रमुखता से स्थान पाती रहीं । जलज जी ने छायावादी युग के रचनाकारों के साथ अपने जीवन के महत्वपूर्ण पल गुज़ारे । महाकवि निराला को उनके सामने ही उन पर लिखी कविता सुनाना जलज जी के बस की ही बात थी । इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में रहने के दौरान हरिवंश राय बच्चन, फ़िराक़ गोरखपुरी, डॉ. रामकुमार वर्मा और ऐसे अनेक विद्वान साहित्यकारों के बीच बैठने और रचना प्रक्रिया करने का अवसर जलज जी को मिला । 
इन सब के बावजूद जलज जी में घमंड नहीं था । वे सभी से बहुत सहजता से मिलते थे । छोटे से छोटे रचनाकार को भी पूरे सम्मान के साथ संबोधित करते थे । आलोचनाओं से उन्होंने स्वयं को बहुत दूर रखा और सभी के विकास के लिए वे सदैव तत्पर रहे । जलज जी कहा करते थे कि एक नया रचनाकार जो साहित्य की ज़मीन पर चलने की कोशिश कर रहा है ,उसे सहारा देना हमारा कर्तव्य है । यदि उसकी आलोचना कर हम उसे निराश कर देंगे तो हो सकता है वह यहीं ख़त्म हो जाए , लेकिन हमारे थोड़े सहारे से यदि वह इस ज़मीन पर ठीक चलता रहा तो हो सकता है कि एक दिन वह साहित्य की समझ को भी विकसित कर लेगा ।
उनका यही स्वभाव उनकी रचनाओं में भी अभिव्यक्त होता रहा। उन्होंने अपनी एक कविता में कहा-

" दुःख की तारीफ़ 
विरह के सौंदर्य का वर्णन 
आदमी की विवशता की कहानी है ।
मानवीय इतिहास के असफल क्षणों में 
प्राप्ति से बढ़कर प्रयत्नों को कहा होगा किसी ने ।
हे विधाता,
तुम अगर कुछ हो कहीं तो मिलन दो मुझको ।
कर्म पर ही दो नहीं अधिकार केवल 
कर्मफल पर भी मुझे अधिकार दो।"

जलज जी संवेदनशील रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में जो संवेदनशीलता नज़र आती है वह उनकी निजी ज़िंदगी में भी दिखाई देती है। अपने अवसान से कुछ समय पूर्व उन्होंने अपने घर के बगीचे के लिए कुछ गमले खरीदे और उन गमलों में फूलों के पौधे लगाए । कहने लगे " इन पौधों में जब फूल खिलते हैं तो बहुत अच्छा लगता है । प्रकृति के हम क़रीब रहे तो ही प्रकृति हमारे क़रीब आती है।" उन्होंने अपने घर के बाहर हरसिंगार का पेड़ लगा रखा था जिसके फूल ख़ूबसूरत चादर की तरह उनके आंगन में बिछ जाया करते थे। उनका यह स्वभाव ही उनकी रचनाओं में भी अभिव्यक्त होता है। जलज जी प्रकृति के प्रति इतने संवेदनशील होकर अपनी बात कहते रहे। अपनी हर कविता में प्रकृति के बिम्बों का इस्तेमाल करते , तो वह उस खुलेपन का पक्ष लेते हैं जो मनुष्य को उड़ने के लिए प्रेरित करता, उसे अपने हाथ-पैर फैलाने की प्रेरणा देता ।

सघन हुए बादल 
लो, फैल चले। 
यहां-वहां सभी कहीं 
नीले ,सांवले , भरे भरे गहरे, कजरारे ,काले ।
आह ! उस रेखा को कैसे बचाऊंगा 
जाने किस क्षण वह भी बरसे 
मेरे ही द्वार से गुज़रे ।
आह ! उस रेखा को कैसे पहचानूंगा । 

और न जाने कितने ही ऐसे दृश्य हैं जिन्हें जलज जी ने अपनी रचनाओं मेंउ बांधा। ऐसे सुंदर और मनोरम दृश्य सिर्फ़ प्रकृति का वर्णन भर नहीं हैं, बल्कि यह प्रकृति के साथ जीवन का तादात्म्य स्थापित करने के समान है । जब कवि मनुष्य और प्रकृति को एक होने की सीख देता है तो वह समूची सृष्टि को एक करने की बात करता है। वैमनस्य का विसर्जन और सौमनस्य का सृजन ही उसका मूल उद्देश्य होता है । जलज जी के इस प्रकृति प्रेम से भी उसी सृजनशीलता की प्रेरणा प्राप्त होती रही। 
जलज जी अपने जीवन में साहित्य के प्रति पूरी तरह समर्पित तो रहे ही, विद्यार्थियों को संस्कार देने में भी अग्रणी रहे । उन्होंने विद्यार्थियों को जो सीख दी यह उसका ही परिणाम था कि रतलाम शासकीय महाविद्यालय में प्राध्यापक के उपरांत 14 वर्षों तक प्राचार्य भी रहे । इस दौरान उनका कभी किसी से कोई विवाद नहीं हुआ और कोई उनसे कभी नाराज़ भी नहीं हुआ । यह उनकी सामंजस्य की प्रवृत्ति का परिणाम था । अपनी कविता "प्यार लो विद्यार्थियों मेरे " में वे विद्यार्थियों के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं और विद्यार्थियों को आगे बढ़ाने के लिए स्वयं के कंधे उनके पैरों के तले रखने के लिए आतुर रहते हैं । यह स्वभाव ही जलज जी को विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय बनाता रहा । न सिर्फ़ विद्यार्थियों के बीच बल्कि अपने सहयोगियों के प्रति भी वे बहुत उदार रहे । वे सभी का विश्वास थे । कई शोधार्थियों ने उनके काव्य पर शोध कार्य किया। वे हिंदी , संस्कृत के साथ ही अपभ्रंश और पाली का भी अनुवाद कर साहित्य जगत को महत्वपूर्ण कृतियां प्रदान करते रहे । उनका सरल स्वभाव और सभी को सुनने और समझने की प्रवृत्ति सभी को सदैव प्रेरित करती रही। उन्होंने अपनी एक कविता में कहा,

अकेले यूं ही 
बड़े नहीं हो जाते पेड़ ।
वर्षों तक पकती है ज़मीन, तपती है धूप 
हवा को लगाने पड़ते हैं चक्कर 
बरसना पड़ता है बादलों को साल दर साल।
धीरे-धीरे ही खुलती है आंखें अच्छाइयों की ।

जलज जी उजियारे के रचनाकार थे । उनका गीत " रोशनी उगने का एक जतन और,  अभी एक जतन और " पूरे देश में प्रेरक गीत के रूप में गाया जाता रहा । वे अपने गीतों के माध्यम से पूरे देश में पहचाने जाते रहे । साहित्य के प्रति उनका लगाव इतना अधिक था कि वे अंतिम समय में भी पुस्तकों को पढ़ने और कुछ नया लिखने के लिए बेचैन रहते थे। जलजजी की ये विशेषताएं उन्हें उस परिवेश के निकट खड़ा करती है जो कमोबेश गांधी ने निर्मित किया था।ऐसा लगता है जलजजी भी गांधीजी के जीवन से जीवन पर्यंत ऊष्मा प्राप्त करते रहे।

⚫ 12/2, कोमल नगर, रतलाम ⚫ 9827084966