शख्सियत : नारी मुक्ति आंदोलन ने स्त्रियों का जीवन बर्बाद होने से बचाया

शख्सियत : नारी मुक्ति आंदोलन ने स्त्रियों का जीवन बर्बाद होने से बचाया

कवयित्री सुशीला राजपूत का कहना

⚫ नरेंद्र गौड़

’दुनिया में सर्वत्र स्थापित पुरूष प्रधान समाज ने धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक हर तरह के प्रपंचों के माध्यम से ऐसे-ऐसे नियम कानून बनाए और वर्जनाएं थोपी, जिससे स्त्री पुरूष की सम्पत्ति या दास बनी रहे। यहां तक कि उसकी देह, उसके सपने, उसकी आशाएं, उसकी ख्वाहिशें, उसकी जिंदगी का मकसद, सभी कुछ, समाज में पुरूष के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए ही था। पुरूषों ने एक ऐसा सांचा बना दिया जिसमें रहते हुए स्त्री ने अपनी अस्मिता खो दी और पुरूष पहचान की मोहताज होकर सदियों तक स्त्री अंधेरे में रहती रही। उसी अंधेरे को मिटाने की कोशिश में नारी मुक्ति आंदोलन का जन्म हुआ। इस आंदोलन ने औरतों को पुरूषों व्दारा पहनाई जंजीरों से आजाद करने की दिशा में महत्वपूर्ण काम किया है और उनका जीवन बर्बाद होने से बचाया।’

साहित्यकार सुशीला राजपूत


यह बात समकालीन समकालीन कविता की सशक्त हस्ताक्षर सुशीला राजपूत ने कही। इनका कहना था कि नारी मुक्ति आंदोलन के कारण ही पश्चिमी देशों में महिलाएं आज स्वतंत्र जीवन बिता रही हैं। उन्होंने परंपरागत संस्कारों और जंजीरों से खुद को आजाद कर लिया है, लेकिन विकासशील और पिछड़े देशों में ऐसा अभी तक नहीं हो पाया है। भारत भी एक विकासशील देश है, जहां तमाम प्रगति के बावजूद स्त्री समाज अभी पिछड़ा हुआ और दमित है। हालांकि पश्चिम देशों के नारी मुक्ति आंदोलन की चिंगारियां भारत में भी सुलगने लगी हैं और बदलाव देखा जाने लगा है, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में खास बदलाव नहीं हो पाया है।

उत्तराखंड के प्राकृतिक परिवेश का प्रभाव

अपनी रचना प्रक्रिया को लेकर सुशीला जी ने कहा कि मेरा जन्म पौड़ी गढ़वाल में हुआ, जहां के सुरम्य प्राकृतिक परिवेश का दूरगामी असर मेरी कविताओं में देखा जा सकता है।  देवदार, चीड़, भोजपत्र सहित यहां की विभिन्न वनस्पतियों ने उत्तराखंड को जीवंत स्वर्ग जैसा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन यहां महिलाओं का जीवन बहुत कठिन है। उन्हें पहाड़ों ऊंचाई चढ़कर ईंधन जुटाना पड़ता है। यहां सीढ़ीदार खेत होते हैं, इस कारण भूमि का रकबा कम होने से मैदानी इलाकों की अपेक्षा उपज कम होती है। यही कारण है कि उत्तराखंड की आय का प्रमुख जरिया पर्यटन है। यहां के जीवन संघर्ष का प्रभाव मेरी कविताओं 

रचनाकारों का विचलित होना स्वाभाविक

 सुशीला जी का कहना है कि देश में आतंक, बलात्कार, भूख, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसे चिंताजनक परिदृष्य के रहते कोई भी संवेदनशील रचनाकार विचलित हुए बिना नहीं रह सकता। ऐसी परिस्थितियां श्रेष्ठ सृजन के लिए सकारात्मक और रचनात्मक नहीं हैं। निश्चय ही इनका असर लेखन पर पड़ेगा। कविता, कहानी के साथ दिक्कत यही है कि आतंकी घटनाओं को लेकर त्वरित कुछ नहीं लिखा जा सकता। भले ही ऐसी घटनाएं रचनाकार को कितना भी व्यथित क्यों नहीं करें। जैसा कि मुक्तिबोध ने कहा है कला के तीन क्षणों से गुजरने के बाद ही रचनात्मक सृजन संभव है, लेकिन पेंटिंग बनाई जा सकती है, ऐसी घटनाओं के विरोध में लेख भी लिखे जा सकते हैं और लिखे भी जा रहे हैं, लेकिन कविता कहानी नहीं लिखी जा सकती। 

अनेक रचनाएं प्रकाशित

पौड़ी गढ़वाल की खूबसूरत वादियों में स्व. श्री पृथ्वीसिंह और श्रीमती सोना देवी के घर जन्मी सुशीला जी के पिता बिजनेसमैन थे और मां गृहणी हैं। इनके पति बृजपाल जी ऑर्डिनेंस फैक्ट्री से रिटायर्ड अफसर हैं। सुशीला जी ने गढ़वाल विश्वविद्यालय के तहत संघटक कॉलेज से अर्थशास्त्र में एमए की परीक्षा उत्तीर्ण की है। आपने 1985 से अध्यापिका के रूप में कार्य प्रारंभ किया और 2017 से 2022 तक राजकीय बालिका हाई स्कूल चक्जोगीवाल में प्राचार्य के पद पर रही। इन दिनों आप देहरादून रहते हुए सृजन में व्यस्त हैं। इनका पहला संकलन ’उम्मीदों के काफिले’ को सुधि पाठकों ने खूब सराहा। आपकी रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। ’सुदिन की काव्य वीणा’ इनका दूसरा कविता संकलन है। इसके अलावा कई साझा संकलनों में इनकी कविताएं छप चुकी हैं। इनके पहले कविता संग्रह को रवीना प्रकाशन व्दारा 2023 में बेस्ट ऑफ द इयर अवार्ड से नवाजा जा चुका है। ’भारतीय स्वतंत्रता सेनानी’ कविता संग्रह में इनकी चुनिंदा रचनाएं संकलित हैं। इसके अलावा कई समकालीन कविताएं ’21 वीं सदी के आधुनिक साहित्य रत्न’ नाम से प्रकाशित साझा संग्रह में भी संकलित हैं। इसके अलावा कुछ सशक्त कविताएं ’हिंदी के शिरोमणि एक साहित्यिक धरोहर’ नामक शोधप्रबंध में भी देखी जा सकती हैं।

रवींद्रनाथ टैगोर सम्मान

सुशीला जी को अनेक सम्मान तथा अलंकरण प्रदान किए जा चुके हैं। इनमें रवींद्र नाथ टैगोर सम्मान, वृक्षारोपण एक संकल्प, योग दिवस सम्मान, काव्य हिंदुस्तान, श्री तुलसीदास सम्मान, शब्द प्रतिभा बहुद्देशीय सम्मान फाउंशन नेपाल व्दारा 2024 में आयोजित अंतरराष्ट्रीय विशिष्ट प्रतिभा सम्मान, 2024 में अंतरराष्ट्रीय मैत्री सम्मेलन इंडियन डायमंड डिग्निटी अवार्ड उल्लेखनीय हैं। लेखन के साथ ही आप आर्थिक कारणों से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पा रही बालिकाओं की सहायतार्थ अभियान में भी संलग्न हैं।

सुशीला जी की चुनिंदा कविताएं

 
तारीख का मोहताज नहीं प्रेम

(वैलेंटाइन डे के अवसर पर)

प्रेम कैलेंडर की किसी खास 
तारीख का मोहताज कभी नहीं
उसके लिए लगन मूहर्त का भी
कोई मोल भी नहीं
कोई बहाना, कोई औचित्यसिद्ध
ना कोई संगति की जरूरत उसे
लोक कहता ये अनुचित है
विधि विरूद्ध निषिद्ध है!
लेकिन, प्रेम कहता है- 
मैं सदियों से मनुष्य में  
विद्यमान रहा हूं
मैं तब भी था जबकि आदमी
कंदराओं में रहा करता था और
उसने आग जलाना 
तक नहीं सीखा था
प्रेम कहता है-
हमेशा रहूंगा।
प्रेम नहीं तो जीवन कैसा?
यही तो अपरिहार्य और
वांछनीय है 
असंख्य बंदिशों के बीच
अरण्य में प्रेम की धूनी रम जाय
जीवन को दीप्त और ऊष्मा से  
आलौकित कर दे
उसके लिए न बसंत
न कोई पतझड़
न सावन न भादों! 
कुछ भी जरूरी नहीं
प्रेम के वितान के लिए।
इस लोक से उस लोक तक
प्रेम ही हमें हर पल हर क्षण
हल्का कर दूसरों के 
प्रति कृतज्ञ बनाता है
फायदे नुकसान से परे
समय दिनमान से परे
जब प्रेम हो तो हर पीड़ा 
बौनी नजर आती है
प्रेम की यही उत्कृष्ट अनुभूति 
हमें इंसान बनाती है 
यही प्रेम का सर्वोत्तम रूप है
इसके लिए किसी प्रयोजन की 
जरूरत नहीं 
न ही इसके लिए 
एक दिन काफी है
वो भी तारीखों के 
बंधनों में कैद प्रेम 
कैसे रह सकता है भला?

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चिरपरिचित पुरुष

वो चिरपरिचित पुरूष
जो अक्सर मुझसे 
प्रेम कविताएं
लिखवाता है
फिर कैसे कहूं...?
वो नहीं है
हो सकता है 
वो वही हो!
जिसे ईश्वर कहा जाता है
वो मेरे भीतर के प्रेम को 
अंशभर भी कम नहीं होने देता
हो सकता है
सृष्टि इसी प्रेम से रचित हो
तभी तो मेरे चारों तरफ
कभी मेरी देह की
गंध बनकर कभी मेरे अधरों पर
गीत बनकर
कभी हवा की भांति
स्पर्श बनकर
मेरे अंदर कहीं बचा रह जाता है
और तब मैं प्रेम के
आनंदातिरेक में
गोते लगाना चाहती हूं
फिर से अर्धरिक्त  रह जाती हूं
फिर वही सांसों का धीरे- धीरे
टूटता स्पंदन एकांत 
कर जाता है मुझे फिर से।

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कई गलतियों के साथ

कई गलतियों के साथ
परिणय किया
बहुत कठोर निर्णय थे
लेकिन बंधन तो सरल था
मैं क्या करती?
उन दीवारों को तोड़ने के भी
कई प्रलोभन थे मेरे पास
उनके साथ मैं 
भविष्य को रोकने को 
तैयार हो गई
छोड़ दी एक पल में मैंने
अबोध बच्चे की सी कोमलता 
जो मुझमें थी
छोड़ दी एक पल में
अपनी आत्मा जिससे मेरा 
कई जन्मों का वास्ता था
अब नहीं चाहती थी 
उसका हिस्सा बनूँ,
उससे अलग मैं ये रहस्य
जानना चाहती थी
पर क्या करती? 
कुछ नहीं कर सकी
क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ न?
अपने अंदर डर को पोसती हूँ 
आज तक खोखलेपन के साथ
नदी की देह में 
बरस बहती चली गई
चाहती तो थी
तुम्हें सब समझा सकूँ
शब्दों से अलग
जो शब्दों से कहीं ज्यादा था
और आज मैं हार गई
मैं स्वेच्छाचारिणी
नहीं बन पाई।